विनिमय १०५ की बात होती है। फिर भी दो बातों का प्रभाव निर्णयात्मक होता है। मुद्रा-रूम या तो बाहर से पाने वाली सबसे महत्वपूर्ण विनिमय की वस्तुओं के साथ जुड़ पाता है, और सच पूछिये, तो घरेलू पैदावार के विनिमय-मूल्य के अभिव्यंजना प्राप्त करने के मादिम पौर स्वाभाविक रूप ये बस्तुएं ही होती है,-पौर या वह डोर जैसी किसी ऐसी उपयोगी वस्तु के साथ पुरा जाता है, वो हस्तांतरित करने योग्य स्थानीय बौलत का मुख्य हिस्सा हो। खानाबदोश क्रीमें सबसे पहले मुद्रा-स्म को विकसित करती है, क्योंकि उनकी सारी दुनियावी दौलत बल वस्तुओं के रूप में होती है और इसलिये उसे सीधे तौर पर हस्तांतरित किया जा सकता है, और क्योंकि उनके बीवन का ढंग ही ऐसा होता है कि परवेशी समुदायों से उनका निरन्तर सम्पर्क कायम होता रहता है और इसलिये उनके लिये पैदावार का विनिमय बरूरी हो जाता है। मनुष्य ने अक्सर खुब मनुष्य से, बालों के रूप में, मुद्रा की प्राविम सामग्री का काम लिया है, लेकिन इस उद्देश्य के लिये उसने जमीन का उपयोग कभी नहीं किया है। इस प्रकार का विचार केवल अच्छी तरह विकसित पूंजीवादी समाज में ही जन्म ले सकता था। सत्रहवीं सदी की पाखिरी तिहाई में यह विचार पहले-पहल सामने पाया, और उसे राष्ट्रव्यापी पैमाने पर अमल में लाने की पहली कोशिश उसके सौ बरस बाद, फ्रांस की पूंजीवादी क्रान्ति के जमाने में हुई। जिस अनुपात में विनिमय अपने स्थानीय बंधनों को तोड़ता जाता है और मालों का मूल्य अधिकाधिक विस्तार प्राप्त करके अमूर्त मानव-श्रम का मूर्त रूप बनता जाता है, उती अनुपात में मुद्रा का स्वरूप उन मालों के साथ जुड़ता जाता है, जो कुदरती तौर पर सार्वत्रिक सम-मूल्य का सामाजिक कार्य करने के लिये उपयुक्त है। बहुमूल्य धातुएं ही इस तरह के माल होती हैं। कहा जाता है कि "सोना और चांदी यचपि स्वभाव से मुद्रा नहीं होते, तथापि मुद्रा स्वभाव से सोना और चांदी होती है।"1 इस स्थापना की सचाई इस बात से सिद्ध हो जाती है कि इन धातुओं के शारीरिक गुण मुद्रा काम करने के लिये उपयुक्त होते हैं। लेकिन अभी तक हमने मुद्रा के केवल एक ही काम का परिचय प्राप्त किया है, यानी अभी तक हमने मुद्रा का एक यही काम देखा है कि वह मालों के मूल्य की अभिव्यक्ति के रूप की तरह, या उस पदार्थ के रूप में काम में पाती है, जिसमें मालों के मूल्यों के परिमाण सामाजिक तौर पर व्यक्त होते हैं। केवल वही पदार्च मूल्य को पर्याप्त उंग से अभिव्यक्त कर सकता है, केवल वही पदार्थ अमूर्स, अभिन्नित और पतएव समान मानव-श्रम का साकार रूप बनने के योग्य हो सकता है, जिसके हरेक नमूने में एक से, समरूप गुण पाये जाते हों। दूसरी मोर, चूंकि मूल्यों के परिमाणों का अन्तर विशुट परिमाणात्मक होता है, इसलिये मुद्रा का काम करने वाला माल ऐसा होना चाहिये, जिसके अलग-अलग नमूनों में केवल परिमाणात्मक भेद किया जा सके, जिसको चुनांचे इच्छानुसार बांटा जा सके और इच्छानुसार फिर से जोड़ा जा सके। सोने और चांदी में ये गुण प्रकृति के दिये हुए होते हैं। . . . Karl Marx, उप० पु०, १० १३५। alli ... naturalmente moneta." ["धातुएं... स्वभावतः मुद्रा होती है।"] (Galiani, "Della Moneta", Custodi के संग्रह के Parte Moderna, अंथ ३, में।) इस विषय की पौर विस्तृत जानकारी हासिल करने के लिये मेरी उपर्युक्त रचना का 'बहुमूल्य धातुओं' वाला प्रध्याय देखिये।
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