११४ पूंजीवादी उत्पादन मालका यह साबित कर देता है कि मूल्य का बोहरा मापदण्ड रखना मापदण्ड के कामों से मेल नहीं साता बिन मालों के निश्चित नाम होते हैं, वे इस रूप में सामने पाते हैं: 'प'सोने का 'त', 'ख' माल का 'फ-सोने का 'य', 'ग' माल का -सोने का 'द' इत्यादि । यहाँ 'प', 'फ' और और 'ग' नामक मालों के निश्चित परिमाणों का और 'त', 'य' और 'द' सोने की निश्चित मात्रामों का . . . "जहां कहीं भी कानूनी तौर पर सोने और चांदी दोनों से साथ-साथ मुद्रा का, या मूल्य की माप का, काम लिया गया है, वहां सदा इस बात की बेकार कोशिश की गयी है कि दोनों को एक ही पदार्थ समझा जाये । यह मानकर चलना कि सोने और चांदी के ऐसे परिमाणों के बीच, जिनमें श्रमकाल का एक निश्चित परिमाण निहित है, सदा एक ही अनुपात रहता है, जो कभी नहीं बदलता,-यह तो असल में यह मान लेने के समान है कि सोना और चांदी दोनों एक ही पदार्थ के बने है और कम मूल्य वाली धातु, चांदी, की एक निश्चित राशि सोने की एक निश्चित राशि का एक ऐसा अंश होती है, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। एडवर्ड तृतीय के राज्य-काल से जार्ज द्वितीय के राज्य-काल तक इंगलैण्ड में मुद्रा का इतिहास सोने और चांदी के मूल्यों के बीच कानूनी तौर पर निर्धारित अनुपात और उनके वास्तविक मूल्यों के उतार-चढ़ाव के टकराव से पैदा होने वाली अनेक गड़बड़ियों के एक लम्बे क्रम का इतिहास है। एक समय सोना बहुत ऊंचे चढ़ जाता था, दूसरे समय चांदी। जिस समय जिस धातु की कीमत उसके मूल्य से कम लगायी जाती थी, उस समय वह धातु परिचलन से निकल जाती थी और उसके सिक्कों को गलाकर विदेशों को भेज दिया जाता था। तब दोनों धातुओं के अनुपात को कानून द्वारा फिर बदल दिया जाता था, लेकिन यह नया नाम मान का अनुपात शीघ्र ही फिर वास्तविक अनुपात टकरा जाता था। हमारे अपने जमाने में भारत और चीन में चांदी की मांग होने के परिणामस्वरूप चांदी की तुलना में सोने के मूल्य में जो थोड़ी सी क्षणिक कमी हुई थी, उससे फ्रांस में यही बात पर भी विस्तृत पैमाने पर देखने में पायी थी,-यानी वहां भी चांदी का निर्यात होने लगा था और सोने ने उसे परिचालन से बाहर निकाल दिया था। १८५५, १८५६ पौर १८५७ में फ्रांस से बाहर जाने वाले सोने की तुलना में फ्रांस में पाने वाले सोने की कीमत ४,१५,८०,००० पौंड अधिक पी, जब कि फ्रांस से चांदी के निर्यात की कीमत पायात की तुलना में १,४७,०४,००० पॉड अधिक थी। सच तो यह है कि जिन देशों में कानून की दृष्टि से दोनों धातुएं मूल्य की माप का काम करती है और इसलिए दोनों वैधानिक मुद्रायें मानी जाती है और ऐसे हर व्यक्ति दोनों में से किसी भी एक धातु में भुगतान कर सकता है, उन देशों में जिस धातु का मूल्य ऊपर चढ़ जाता है, उसका महत्त्व बढ़ जाता है, और दूसरे प्रत्येक माल की भांति वह अपना दाम उस धातु में मापने लगता है, जिसका मूल्य अधिक लगाया जा रहा है और जो अब असल में अकेली ही मूल्य के मापदण्ड का काम करती है। इस प्रश्न के सम्बंध में समस्त अनुभव और इतिहास का निष्कर्ष केवल यह है कि जहां कहीं कानून के अनुसार दो मालों से मूल्य की माप का काम लिया जाता है, वहां व्यवहार में उनमें से केवल एक ही इस स्थिति को कायम रख पाता है।" (Karl Marx, "Zur Kritik der Politischen Oeko- nomic", पृ. ५२,५३।) . .
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/११७
दिखावट