मुद्रा, या मालों का परिचलन १५५ स) भुगतान के साधन अभी तक हमने माल के परिचालन के जिस साधारण रूप पर विचार किया है, उसमें प्रत्येक निश्चित मूल्य सदा बोहरी शकल में हमारे सामने पाया है -एक ध्रुव पर माल को शकल में और उसके उल्टे ध्रुव पर मुद्रा की शकल में। इसलिए मालों के मालिक सवा ऐसी चीजों के प्रतिनिषियों के रूप में एक दूसरे के सम्पर्क में पाते थे, जो पहले ही से एक दूसरे का सम- मूल्य थीं। लेकिन परिचलन का विकास होने के साथ-साथ ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती है, जिनमें मालों के हस्तांतरण और उनके दामों के मूर्त रूप प्राप्त करने के बीच समय का अन्तर पैदा हो जाता है। इनमें जो सबसे सरल परिस्थितियां हैं, यहां उनकी भोर संकेत कर देना काफ़ी होगा। एक तरह की चीन के उत्पादन में ज्यादा और दूसरी तरह की चीन के उत्पादन में कम समय लगता है। फिर अलग-अलग मालों का उत्पादन अलग-अलग मौसमों पर निर्भर करता है। मुमकिन है कि एक तरह का माल अपनी मण्डी में ही पैदा होता हो और दूसरा माल लम्बा सफर पूरा करके मण्डी में पहुंचता हो। और इसलिए यह मुमकिन है कि इसके पहले कि दूसरे नम्बर के माल का मालिक खरीदने के लिए तैयार हो, पहले नम्बर के माल का मालिक बेचने के लिए तैयार हो जाये। जब उन्हीं व्यक्तियों के बीच में एक ही प्रकार के सौदे लगातार बोहराये जाते हैं, तब बिक्री की शर्तों का नियमन उत्पादन की परिस्थितियों के अनुसार होता है। दूसरी पोर, एक प्रकार के माल का- उदाहरण के लिए, एक मकान का-उपयोग एक निश्चित काल के लिए बेचा जाता है (या यदि प्रचलित भाषा का प्रयोग किया जाय, तो उसे किराये पर उठा दिया जाता है)। ऐसी सूरत में केवल नियत काल की समाप्ति पर ही खरीदार को माल का उपयोग-मूल्य सचमुच प्राप्त हो पाता है। इसलिए वह उसे खरीब पहले लेता है और बाम का भुगतान बाव को करता है। बेचने वाला एक ऐसा माल बेचता है, जो पहले से मौजूर है; खरीदार महत मुद्रा के-बल्कि कहना चाहिए कि भावी मुद्रा के-प्रतिनिधि के रूप में खरीदता है। बेचने वाला लेनदार बन जाता है, खरीदार देनदार हो जाता है। यहां चूंकि मालों का स्पान्तरण-अषवा उनके मूल्प-स्म का विकास-एक नयी अवस्था में सामने पाता है, इसलिए मुद्रा भी एक नया कार्य करने लगती है। वह भुगतान का साधन बन जाती है। यहां पर लेनदार या देनदार का स्प साधारण परिचलन का फल होता है। उस परिचलन का स्म-परिवर्तन पाहक और विस्ता पर इस नयी मुहर की छाप लगा देता है। इसलिए, शुरू- . करते हैं कि हिन्दुस्तान में चांदी के जेवर अब भी सीधे तौर पर अपसंचित धन का काम करते हैं। जब सूद की दर ऊंची होती है, तब चांदी के जेवर बाहर निकल पाते हैं और उनके सिक्के ढल जाते हैं, और जब सूद की दर गिर जाती है, तब वे फिर वापिस चले जाते हैं । (J. S. Mill's Evidence. "Reports on Bank Acts" [जो० एस० मिल की गवाही, 'बैंक सम्बंधी कानूनों के विषय में रिपोर्ट'], 1857, २०५४।) हिन्दुस्तान के सोने और चांदी के भायात और निर्यात के सम्बंध में १८६४ की एक संसदीय दस्तावेज के अनुसार १८६३ में हिन्दुस्तान से सोने और चांदी का जितना निर्यात हुमा था, उससे १,९३,६७,७६४ पौण्ड अधिक का मायात हुमा था। १८६४ तक जो पाठ साल बीत चुके थे, उनमें बहुमूल्य धातुओं का जितना निर्यात हुआ था, उससे १०,९६,५२,९१७ पौण्ड अधिक का आयात हुमा था। इस शताब्दी में हिन्दुस्तान में २० करोड़ पौण्ड से कहीं ज्यादा के सिक्के डाले जा चुके हैं।
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