पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१९४

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छठा अध्याय श्रम-शक्ति का क्रय और विक्रय - निस मुद्रा को पूंजी में बदला जाना है, उसके मूल्य में बो परिवर्तन होता है, वह बुर मुद्रा में ही नहीं हो सकता, क्योंकि खरीद और भुगतान के साधन का काम करते समय मुद्रा जिस माल को खरीदती है या जिस माल का भुगतान करती है, उसके दाम को मूर्त रूप देने के सिवा और कुछ नहीं करती, और नकदी की शकल में मुद्रा पपराया हुमा मूल्य होती है, जो कभी नहीं बदलता। न ही यह परिवर्तन परिचलन की दूसरी क्रिया में-यानी माल के फिर से बेचे जाने के दौरान में-हो सकता है, क्योंकि वह किया इससे अधिक कुछ नहीं करती कि वस्तु को उसके शारीरिक रूप से पुनः उसके मुद्राम में बदल देती है। इसलिए, यह परिवर्तन पहली क्रिया मु-मा के द्वारा खरीदे नये माल में होना चाहिए, मगर वह उसके मूल्य में नहीं हो सकता, क्योंकि विनिमय सम-मूल्यों का होता है और माल के बाम का भुगतान उसके पूरे मूल्य के अनुसार होता है। प्रतएव, हमें मजबूर होकर इस नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि यह परिवर्तन स्वयं माल के उपयोग मूल्य से, यानी उसके उपभोग से, उत्पन्न होता है। किसी माल के उपभोग से मूल्य निकालने के लिए जरूरी है कि हमारे मित्र, श्रीयुत पन्नासेठ इतने भाग्यवान हों कि उनको परिचलन के क्षेत्र के भीतर ही, यानी मण्डी में ही, एक ऐसा माल मिल जाये, जिसके उपयोग मूल्य में मूल्य पैदा करने का विशेष गुण हो और इसलिए खुद ही जिसका वास्तविक उपभोग भम को साकार रूप देता और, इस तरह, मूल्य का सृजन करता हो। मुद्रा के मालिक को सचमुच मण्डी में श्रम करने की सामर्थ्य-अथवा भम-शक्ति-केस में एक ऐसा विशेष माल मिल जाता है। श्रम-शक्ति-अथवा मम करने की सामयं-से हमारा अभिप्राय मनुष्य में पायी जाने बाली उन मानसिक तथा शारीरिक समतामों के समूह से है, जिनका वह किसी भी प्रकार का उपयोग मूल्य पैरा करने के समय प्रयोग करता है। लेकिन इसलिए कि हमारा मुद्रा-मालिक माल के रूप में विकी के लिए पेश की गयी मम-शक्ति प्राप्त कर सके, कुछ शर्तों का पूरा होना जरूरी है। पुर मालों के विनिमय के स्वभाव के फलस्वरूप यो सम्बंध उत्पन्न हो जाते हैं, विनिमय के साथ उनके सिवा निर्भरता के और कोई सम्बंब पड़े हुए नहीं होते। इस अभिधारणा के अनुसार, मन-शक्ति केवल उती समय और यहां तक माल के रूप में मन्दी में पा सकती है, पब और नहाँ तक वह व्यक्ति, . ... 'मुद्रा के रूप में पूंजी से कोई मुनाफा उत्पन्न नहीं होता" (Ricardo, “Prin- ciples of Political Economy" [रिकानें, 'प्रर्षशास्त्र के सिद्धान्त'], पृ. २६७ )।