श्रम-शक्ति का क्रय और विक्रय १६३ . दूसरी पावश्यक शर्त यह है कि मजदूर अपने श्रम से बनाये गये मालों को बेचने की स्थिति में न हो, बल्कि इसके बजाय वह खुब उस भम-शक्ति को ही माल के रूप में विक्री के वास्ते पेश करने के लिए मजबूर हो, जो केवल उसके सजीव व्यक्तित्व में ही निवास करती है। यदि कोई प्रादमी अपनी प्रम-शक्ति के अलावा कोई और माल बेचना चाहता है, तो बाहिर है कि उसके पास उत्पादन के साधन होने चाहिए, जैसे कि कच्चा माल, मौवार वगैरह। बिना चमड़े के जूते नहीं बनाये जा सकते। इसके अलावा, उसे जीवन-निर्वाह के साधनों की भी बरत होती है। भावी पैदावार के सहारे, या ऐसे उपयोग-मूल्यों के सहारे, जो अभी पूरी तरह तैयार नहीं हुए है, कोई चिन्दा नहीं रह सकता,- यहां तक कि "भविष्य में महानता का दावा करने वाला संगीतकार" भी उनके सहारे जीवित नहीं रह सकता; और जबसे मनुष्य संसार के रंगमंच पर उतरा है, वह उस पहले क्षण से ही उत्पादन करने के पहले और उत्पादन करने के दौरान में सदा उपभोगी रहा है, और मागे भी रहेगा। एक ऐसे समाज में, जहां पैदावार की सभी बीचे मालों का रूप धारण कर लेती हैं, उत्पादन के बाद मालों का विकना जरूरी होता है; केवल बिक जाने के बाद ही वे अपने उत्पादक की प्रावश्यकतामों को पूरा करने में सहायक हो सकते हैं। उनके उत्पादन के लिए जो समय पावश्यक होता है, उसमें वह समय भी जोड़ दिया जाता है, जो उनकी बिक्री के वास्ते बरूरी होता है। प्रतः इसलिए कि मुद्रा का मालिक अपनी मुद्रा को पूंजी में बदल सके, यह जरूरी है कि मंग में उसकी स्वतंत्र मजदूर से मुलाकात हो। और इस मजदूर को दो मानों में स्वतंत्र होना चाहिए - एक तो इस माने में कि स्वतंत्र मनुष्य के रूप में वह अपनी श्रम-शक्ति को खुद अपने माल के रूप में बेच सकता हो, और, दूसरे, इस माने में कि उसके पास बेचने के लिए और कोई माल न हो, अर्थात् अपनी श्रम-शक्ति को मूर्त रूप देने के लिए उसे जिन चीजों की जरूरत होती है, उनका उसके पास पूर्ण प्रभाव हो । मुद्रा के मालिक को इस सवाल में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मन्जी में उसकी इस स्वतंत्र से क्यों मुलाकात हो जाती है। वह तो भम की मण्डी को मालों की ग्राम मी की ही एक शाखा समझता है। फिलहाल हमें भी इस सवाल में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है। मुद्रा का मालिक व्यवहार में इस तव्य से चिपका हुमा है, हमने सैदान्तिक ढंग से उसे स्वीकार कर लिया है। किन्तु एक बात स्पष्ट है,-वह यह कि प्रकृति ने एक तरफ़ मुद्रा या मालों के मालिकों को और दूसरी पोर ऐसे लोगों को, जिनके पास अपनी श्रम-शक्ति के सिवा और कुछ भी नहीं है, इन दो तरह के लोगों को पैदा नहीं किया है। इस सम्बंध का कोई प्राकृतिक भाषार नहीं है, और न उसका कोई ऐसा सामाजिक प्राधार ही है, जो सभी ऐतिहासिक कालों में समान रूप से पाया जाता हो। स्पष्ट हो, यह भूतकाल के ऐतिहासिक विकास का परिणाम है, बहुत सी पार्षिक क्रान्तियों का फल है और सामाजिक उत्पादन के पुराने मों के एक पूरे क्रम के विनाश का नतीजा है। इसी प्रकार, उन प्रार्षिक परिकल्पनाओं पर भी इतिहास की छाप पड़ी हुई है, जिनपर हम पीछे विचार कर चुके हैं। किसी पैदावार के माल बनने के लिए बरूरी है कि कुछ निश्चित डंग की ऐतिहासिक परिस्थितियां मौजूद हों। उसके लिए प्रावश्यक है कि पैदावार र उत्पादक के जीवन-निर्वाह के साधन के रूप में न पैदा की जाये। यदि हमने बोड़ा और मागे बढ़कर इसकी खोज की होती कि समस्त पैदावार या कम से कम पैदावार का अधिकांश किन परिस्थितियों में मालों का रूप धारण कर लेता है, तो हमें पता चलता कि यह बात केवल . 13-45
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