१९६ पूंजीवादी उत्पादन की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप मन्डी से हटा ली जाती है, उसके स्थान पर कम से कम उतनी ही मात्रा में नयी भम-शक्ति बराबर माती रहनी चाहिए। इसलिए अम-शक्ति के उत्पादन के लिए प्रावश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों के कुल गो में उन साधनों को भी शामिल करना पड़ेगा, जो मजदूर के प्रतिस्थापकों के लिए, यानी उसके बच्चों के लिए, पहरी हैं, ताकी इस विचित्र माल के मालिकों की यह नसल मण्डी में बराबर मौजूद रहे।' मानव-शरीर को इस तरह बदलने के लिए कि उसमें उद्योग की किसी खास शाला के लिए जरूरी निपुणता पौर हस्तकौशल पैदा हो जाये और वह एक खास तरह की प्रम-शक्ति बन जाये, एक खास तरह की शिक्षा और प्रशिक्षण की मावश्यकता होती है, और उसमें भी न्यूनाधिक मात्रा में मालों के रूप में एक सम-मूल्य सर्च होता है। यह मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि मम-शक्ति का स्वरूप कितना कम या अधिक संश्लिष्ट है। इस शिक्षा का बर्ष (जो साधारण भम-शक्ति की सूरत में बहुत ही कम होता है) pro tanto (इसी परिमाण में) श्रम-शक्ति के उत्पादन पर खर्च किये गये कुल मूल्य में शामिल हो जाता है। इस प्रकार, श्रम-शक्ति का मूल्य जीवन निर्वाह के साधनों की एक निश्चित मात्रा के मूल्य में परिणत हो जाता है। चुनांचे बह इन साधनों के मूल्य के साप, या इन साधनों के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम की मात्रा के साप, घटता-बढ़ता रहता है। जीवन-निर्वाह के साधनों में से कुछ-जैसे भोजन की वस्तुओं और इंधन-का रोजाना उपभोग होता है, और इसलिए उनकी रोजाना नयी पूर्ति होती रहनी चाहिए। दूसरे सापन, जैसे कि कपड़े और फर्नीचर, ज्यादा समय तक चलते हैं, और इसलिए उनके स्थान पर ऐसी नयी चीजों की व्यवस्था काफ़ी देर के बाद ही करनी बरी होती है। सो एक वस्तु रोग, दूसरी हर सप्ताह, तीसरी तीन महीने के बाद खरीदनी पड़ती है, या उनका भुगतान करना पड़ता है, और इसी प्रकार अन्य वस्तुओं का हिसाव होता है। लेकिन इन तमाम मवों में किये गये खर्चा का कुल मोड़ साल भर में चाहे जिस तरह फैलाया गया हो, वह मजदूर को दैनिक प्रोसत प्रामवनी से पूरा होता रहना चाहिए। यदि मन-शक्ति के उत्पादन के लिए जिन मालों की रोजाना पावश्यकता होती है, उनका जोड़-'क',प्रति सप्ताह प्रावश्यक होने वाली वस्तुओं का बोड़-'ख' और तीन महीने में प्रावश्यक होने वाली वस्तुओं का बोड़-'ग', और इसी तरह ३६५ 'क'+५२'ख'+४ 'ग'+ इत्यादि प्रागे भी, तोइन मालों की रोजाना प्रौसत मात्रा = ३६५ मान लीजिये कि एक प्रोसत दिन में इन मालों को जो मात्रा मावश्यक होती है, उसमें ६ घण्टे का सामाजिक मम निहित होता है। तब भम-शक्ति में रोजाना प्राधे दिन का पोसत सामाजिक बम निहित होता है, या, दूसरे शब्दों में श्रम-शक्ति के रोजाना . - . , 'उसका (श्रम का) स्वाभाविक दाम... जीवन-निर्वाह के लिए प्रावश्यक वस्तुओं तथा सुख के साधनों की वह मात्रा होता है, जो देश के जलवायु तथा भावतों को देखते हुए मजदूर के जिन्दा रहने तथा इतने बड़े परिवार का भरण-पोषण करने के लिए जरूरी हो, जो मण्डी में श्रम की पहले जितनी पूर्ति को बराबर बनाये रख सके ।" (R. Torrens, "An Essay on the External Corn Trade' [भार० टोरेन्स, 'अनाज के बाहरी व्यापार पर एक निबंध'], London, 1815, पृ. ६२।) यहां "श्रम-शक्ति" के स्थान पर "श्रम शब्द का गलत प्रयोग किया गया है। "
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