श्रम-प्रक्रिया मोर मतिरिक्त मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया २१७ . . . कमी बोला नहीं जायेगा। भविष्य में वह माल पर तैयार करने के बजाय मग्नी से खरीदा. करेगा। लेकिन यदि उसके तमाम भाई-बन्द-दूसरे पूंजीपति- भी यही करने लगे, तब उसे मण्डी से माल कैसे मिलेगा और अपनी मुद्रा को तो वह ना नहीं सकता। तब पूंजीपति चिकनी- चुपड़ी बातों का सहारा लेता और कहता है: "खरा इसका तोखपाल करो कि मैंने कितने परिवर्बन से काम लिया है। मैं चाहता, तो १५ शिलिंग को यों ही लुटा देता। लेकिन उसके बजाय मैंने इस रकम को उत्पादक रंग से सर्च किया और उससे सूत तैयार किया।" बड़ी अच्छी बात है, और उसका उसे यह पुरस्कार भी मिल गया है कि यदि वह १५ शिलिंग को यों ही लुटा बेता, तो उसकी प्रात्मा कचोटती, पर अब यह बढ़िया सूत का मालिक है। और वहां तक कंजूस की भूमिका अदा करने का सवाल है, सो फिर से ऐसी पुरी लत में पड़ जाने से उसका कोई भला नहीं होगा, क्योंकि हम पहले ही देख चुके हैं कि इस प्रकार की संन्यास-वृत्ति का क्या परिणाम होता है। इसके अलावा, वहां कुछ नहीं होता, वहां तो राजा का अधिकार भी खतम हो जाता है। उसका परिवर्जन चाहे जितना प्रशंसनीय हो, किन्तु यहाँ ऐसी कोई बीच नहीं है, जिससे खास तौर पर उसके परिवर्वन का मुमावता दिया जा सके, क्योंकि पैदावार का मूल्य महब उन मालों के मूल्य का जोड़ है, जो उत्पादन की प्रक्रिया में गले गये थे। इसलिए अब तो वह केवल इसी विचार से अपने मन को दिलासा दे सकता है कि सत्कर्म स्वयं अपना पुरस्कार होता है। लेकिन नहीं, वह तो इसरार करने लगता है। वह कहता है: "सूत मेरे किसी काम का नहीं है, मैंने तो उसे बेचने के लिए तैयार किया था।" यदि यह बात है, तो उसे अपना सूत बेच देना चाहिए, या उससे भी बेहतर यह होगा कि भविष्य में वह केवल ऐसी ची तैयार करे, जिनकी उसे अपनी व्यक्तिगत प्रावश्यकताओं की पूर्ति के लिए बरत हो,- उसके चिकित्सक मैक्कुलक महाशय प्रति-उत्पादन की महामारी के लिए एक अचूक दवा के रूप में पहले ही इस पोषषि का निर्देश कर चुके हैं। पर अब तो पूंजीपति चिही हो पाता है। वह पूछता "क्या मजबूर केवल अपने हाथों-पैरों से शून्य में से कोई बीच तैयार कर सकता है? क्या मैंने उसे यह सामग्री नहीं दी थी, जिसके द्वारा-और केवल जिसके द्वाराही- उसका श्रम मूर्त म धारण कर सकता था? और समाज का अधिकांश कि ऐसे साधनहीन लोगों का ही होता है, इसलिए क्या अपने उत्पादन के पौवारों से, अपनी कपास और अपने तकुए से मैंने समाज की प्रगण्य सेवा नहीं की है? और समाज की ही क्यों, क्या मैंने उसके साथ-साथ मजदूर की भी सेवा नहीं की है, जिसको मैंने इन चीजों के अलावा जीवन के लिए प्रावश्यक वस्तुएं भी दी है? और क्या इस समस्त सेवा के बदले में मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा?" ठीक है, मगर क्या मजदूर ने पूंजीपति की कपास और कुए को सूत में बदलकर उसकी इसके बराबर सेवा नहीं कर दी है। इसके अलावा, यहाँ सेवा का कोई सवाल नहीं है।' सेवा किसी उपयोग-मूल्य के .. . 1"अपनी चाहे जितनी तारीफें करो, चाहे जैसी पोशाकें पहनो और चाहे जितने बन-उन कर निकलो... लेकिन जो कोई भी, जितना वह देता है, यदि उससे ज्यादा या उससे बेहतर ले लेता है, तो वह सूदडोर है और वह अपने पड़ोसी की सेवा नहीं, बल्कि उसके साथ दुराई करता है चोर या अकू की तरह ही। सेवा पौर उपकार कहलाने वाली हर चीज सचमुच पड़ोसी की सेवा और उपकार नहीं होती। जैसे कि एक व्यभिचारिणी और व्यभिचारी भी एक दूसरे की बड़ी सेवा करते है और एक दूसरे को बड़ा मानन्द देते है। घुड़सवार मुसाफिरों को लूटने पौर घरों तथा बस्तियों में का गलने में मदद देकर भागबन की बड़ी सेवा करता है।
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