२२० पूंजीवादी उत्पादन . . किया गया है। कारण कि ग्राहक केस में पूंजीपति ने हर माल के-कपास, तकुए और भम-शक्ति के-बाम उसके पूरे मूल्य के अनुसार दिये हैं। उसके बाद उसने वही किया, मो मालों का हर प्राहक करता है। उसने इन नालों के उपयोग मूल्य का उपभोग किया। मम-शक्ति के उपभोग से, जो साप ही मालों को पैदा करने की भी प्रक्रिया पा, २० पौड सूत तैयार हुमा, जिसका मूल्य ३० शिलिंग है। पूंजीपति, बो पहले प्राहक पा, अब मालों के पिता के रूप में मन्दी में पहुंचता है। वह अपना सूत मगरह पेंस फ्री पोज के भाव से वेचता है, जो कि सूत का बिल्कुल सही मूल्य है। लेकिन, इस सब के बावजूर, परिचलन में उसने शुरू में जितनी कम गली थी, वह उससे ३ शिलिंग ज्यादा बाहर निकाल देता है। यह मान्तरण, मुद्रा का पूंजी में यह परिवर्तन, परिचलन के क्षेत्र के भीतर होते हुए भी उसके बाहर होता है। वह परिचालन के भीतर होता है, क्योंकि वह मनी में बम-शक्ति की खरीद के द्वारा निर्धारित होता है। वह परिचलन के बाहर होता है, क्योंकि परिचलन के भीतर जो कुछ होता है, वह अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का केवल प्रवेश-भार है और अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन एक ऐसी प्रक्रिया है, जो पूरी तरह उत्पादन के क्षेत्र तक ही सीमित है। इस प्रकार, "tout est pour le mleux dans le meilleur des mondes possibles" ("सब मुमकिन दुनियामों से अच्छी इस दुनिया में हर पीस पच्छाई के लिये ही है")। अपनी मुद्रा को ऐसे मालों में बवलकर, जो एक नयी पैदावार के भौतिक तत्वों का पोर मम-प्रक्रिया के उपकरणों का काम करते हैं, और उनके निर्जीव प्रव्य के साथ जीवन्त मम का समावेश करके पूंजीपति साथ ही साथ मूल्य को-मानी मूर्त म धारण किये हुए भूतपूर्व मृत मम को-पूंजी में बदल देता है। यह मूल्य को ऐसे मूल्य में बदल देता है, जिसके गर्भ में और भी मूल्य होता है। वह उसे एक ऐसा बिन्दा दैत्य बना देता है, जो बच्चे देता है और अपनी मसल बढ़ाता है। अब यदि हम मूल्य पैदा करने की और अतिरिक्त मूल्य का सृजन करने की इन दो अभियानों का मुकाबला करते हैं, तो हम देखते हैं कि अतिरिक्त मूल्य का सृजन करने की प्रक्रिया इससे अधिक कुछ नहीं है कि मूल्य पैरा करने की प्रक्रिया एक निश्चित विन्तु से प्रागे जारी रहती है। एक मोर, यदि यह प्रक्रिया उस बिन्दु से मागे जारी नहीं रहती, वहाँ पर कि मम-शक्ति के लिये पूंजीपति द्वारा दिये गये मूल्य का स्थान उसका ठीक सम-मूल्य ग्रहण कर लेता है, तो वह केवल मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया रहती है। दूसरी मोर, यदि वह इस बिन्तु से पागे भी जारी रहती है, तो वह अतिरिक्त मूल्य का सृजन करने की प्रक्यिा बन जाती है। पदि हम और भागे बढ़कर मूल्य पैदा करने की प्रकिया का विशुद्ध श्रम-प्रक्रिया के साथ महावना करते है, तो पाते हैं कि विशुद्ध श्रम-प्रक्यिा यह उपयोगी मन है, या यह काम है, यो उपयोग-मूल्यों को पैदा करता है। यहां हम किसी विशेष बस्तु को पैदा करने के म में मन पर विचार करते हैं। यहां पर हम केवल उसके गुणात्मक पहलू पर ही विचार करते हैं और उसके प्येष तवा लक्ष्य को देखते हैं। लेकिन मूल्य पैदा करने वाली प्रक्रिया के रूप में विचार करने पर यही मन-प्रणिया केवल अपने परिमाणात्मक पहलू में सामने पाती है। यहां एकमात्र यही सवाल होता है कि मजदूर ने काम करने में कितना समय लगाया है। यहां पर केवल उस प्रवर्षि का प्रश्न होता है, जिसमें प्रम-गापित को उपयोगी रंग से सर्च किया गया है। यहाँ को माल प्रक्रिया में भाग मेते हैं, उनका किसी निश्चित उपयोगी वस्तु के उत्पादन में मम-शापित की पावत्यक बह-वस्तुओं केस में महत्व नहीं होता। उनका महत्व अब केवल अवशोषित
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