श्रम-प्रक्रिया और अतिरिक्त मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया २२१ अपना मूलपारण किये हुए मन की किसी खास मात्रा के भन्सारों की सकल में होता है। यह मम पाहे उत्पादन के सापनों में पहले से निहित रहा हो और चाहे उसका पहली बार मन- शक्ति के कार्य द्वारा उनमें समावेश हुमा हो, दोनों सूरतों में वह केवल अपनी अवधि के अनुसार ही गिना जाता है। यह सबा इतने बन्दों या इतने दिनों का मन होता है। इसके अलावा, किसी भी वस्तु के उत्पादन में जो समय खर्च होता है, उसका केवल उतना ही भाग गिना जाता है, जो किन्हीं निश्चित सामाजिक परिस्थितियों में सचमुच पावश्यक होता है। इसके कई नतीचे होते हैं। एक तो यह बरी हो जाता है। कि मम सामान्य परिस्थितियों में किया जाये। यदि कताई में पाम तौर पर स्वचालित म्यूल-मशीन का प्रयोग हो रहा है, तो कातने वाले को पर्ता और पूनी देना बिल्कुल बेतुकी बात होगी। कपास भी इतनी रही नहीं होनी चाहिये कि कातने में बहुत प्यावा बरबाद हो जाये, बल्कि सही किस्म की होनी चाहिये। वरना कातने वाले को एक पोम सूत कातने में जितना सामाजिक दृष्टि से प्रावश्यक है, उससे ज्यादा समय खर्च करना पड़ेगा, और ऐसा होने पर न तो मूल्य पैदा होगा और न मद्रा। लेकिन प्रक्रिया के भौतिक उपकरणों का सामान्य ढंग का होना या न होना मजदूर पर नहीं, बल्कि सर्वधा पूंजीपति पर निर्भर करता है। फिर पुर प्रम-शक्ति भी पोसत कार्य ममता वाली होनी चाहिए। जिस व्यवसाय में उसका प्रयोग हो रहा है, मम-शक्ति में उसमें प्रचलित प्रोसत बर्वे की निपुणता, रलता और तेनी होनी चाहिए और हमारे पूंजीपति ने इस प्रकार की सामान्य कार्यक्षमता की भम-शक्ति खरीदने का खास खयाल रखा था। इसमम-शक्ति का प्रोसत बर्षे के प्रयास और प्रचलित तीव्रता के साथ प्रयोग होना चाहिए और हमारे पूंजीपति को इस बात का उतना ही खयाल रहता है, जितना उसे इस बात का रहता है कि उसके मजदूर एक बग के लिए भी जाली न बैठने पायें। उसने एक निश्चित अवधि के लिए बम-शक्ति का उपयोग करने का अधिकार खरीदा है, और यह अपने अधिकार का पूरा-पूरा प्रयोग करने पर उतारू है। वह इस बात के लिए कतई तैयार नहीं है कि कोई उसे लूट कर चला जाये। पाखिरी बात यह है-और इसके लिए हमारे मित्र ने अपना एक अलग Code penal (बड-विधान) बना रखा है-किकच्चे माल या धम के पोवारों के अपव्ययपूर्ण उपयोग की सन्त मनाही कर दी गयी है। कारण कि इस तरह वो कुछ खाया हो जाता है, वह कालवूडंग से सर्च कर दिये गये बम का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन ऐसा धम पैदावार में नहीं गिना बाता या उसके मूल्य में प्रवेश नहीं करता।' यह भी एक कारण है, जिससे गुलामों के श्रम से उत्पादन कराना इतना महंगा पड़ता है। यदि प्राचीन काल के लोगों के कुछ सारगर्भित शब्दों का प्रयोग किया जाये, तो हम कहेंगे कि यहां श्रम करने वाला मजदूर जानवर और प्रौजार से केवल इसी बात में भिन्न होता है कि मौजार instrumentum mutum (मूक पोषार) होता है तथा जानवर instrumentum semi-vocale (अर्ध-मूक प्रौजार) होता है और उनके मुकाबले में गुलाम instrumentum vocale (प्रमूक पाजार) होता है। लेकिन गुलाम बद जानवर और पोषार दोनों को यह महसूस कराने का खास ख़याल रखता है कि वह उनके समान नहीं है, बल्कि एक मनुष्य है। वह con amore (बहुत उत्साह से) एक के साथ निर्मम व्यवहार करके और दूसरे को तोड़- ताड़कर अत्यन्त संतोष के साथ अपने को विश्वास दिलाता रहता है कि वह जानवर और मौजार दोनों से भिन्न है। इसी से यह सिखान्त निकला है-और उसका उत्पादन की इस
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