पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२६७

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२६४ पूंजीवादी उत्पादन 1 १ तुम रोजाना मुसको मेरी मम-शक्ति के कुल मूल्य के के बजाय उसका ३,६५० १०,९५० १ पानी उसके दैनिक मूल्य का केवल ही देते हो। इस तरह तुम मेरी वस्तु २ भाग प्रति दिन लूट लेते हो। तुम मुझे वाम दोगे एक दिन की मन-शक्ति के, लेकिन इस्तेमाल करोगे ३ दिन की प्रम-शक्ति । यह हम लोगों के करार और विनिमय के नियम के खिलाफ है। इसलिये मैं मांग करता हूं कि काम का दिन सामान्य लम्बाई का हो, और इस मांग को मनवाने के लिये मैं तुम्हारे हव्य को प्रवित करना नहीं चाहता, क्योंकि रुपये-पैसे के मामले में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता। मुमकिन है कि तुम एक प्रादर्श नागरिक हो, सम्भव है कि तुम पशु-नियता-निवारण समिति के सदस्य भी हो और ऊपर से तुम्हारा सापन सारी दुनिया में विख्यात हो। लेकिन मेरे सामने बड़े हए तुम जिस चीज का प्रतिनिधित्व करते हो, उसकी छाती में हदय का प्रभाव होता है। वहां जो कुछ घड़कता सा लगता है, वह पर मेरे दिल की प्रावास है। मैं सामान्य लम्बाई के काम के दिन की इसलिये मांग करता हूं कि दूसरे हर वित्ता की तरह में भी अपने माल का पूरा-पूरा मूल्य चाहता हूं।' इस तरह, हम देखते हैं कि कुछ बहुत ही लोचदार सीमानों के अलावा मालों के विनिमय का स्वल्प जुन काम के दिन पर, या अतिरिक्त मम पर, कोई प्रतिबंध नहीं लगाता। पूंजीपति अब काम के दिन को ज्यादा से ज्यादा लम्बा जाँचना चाहता है, और मुमकिन हो, तो एक दिन के दो दिन बनाने की कोशिश करता है, तब वह खरीदार के रूप में अपने अधिकार का ही प्रयोग करता है। दूसरी तरफ, उसके हाप बेचा जाने वाला माल इस अजीब तरह का है कि उसका परीवार एक सीमा से अधिक उसका उपयोग नहीं कर सकता, पौर जब मजदूर काम के दिन को घटाकर एक निश्चित एवं सामान्य अवधि का दिन कर देना चाहता है, तब वह भी बेचने वाले के रूप में अपने अधिकार का ही प्रयोग करता है। इसलिये, यहाँ असल में दो अधिकारों का विरोष सामने पाता है, अधिकार से अधिकार टकराता है, पौर दोनों अधिकार ऐसे हैं, जिनपर विनिमय के नियम की मुहर लगी हुई है। जब समान अधिकारों की टक्कर होती है, तब बल प्रयोग द्वारा ही निर्णय होता है। यही कारण है कि पूंजीवादी उत्पादन के इतिहास में, काम का दिन कितना लम्बा हो, इस प्रश्न का निर्णय एक संघर्ष के द्वारा होता है, जो संघर्ष सामूहिक पूंजी-पात् पूंजीपतियों के वर्ग-और सामूहिक श्रम-अर्थात् मजदूरवर्ग-के बीच चलता है। . 1१८६०-६१ की लन्दन के राजगीरों की बड़ी हड़ताल काम के दिन को घटवाकर ६ घण्टे का कराने के लिये हुई थी। उस समय राजगीरों की समिति ने एक घोषणा-पत्र प्रकाशित किया था, जो हमारे इस मजदूर के उपरोक्त वक्तव्य से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। इस घोषणा- पत्र में हल्के व्यंग्य के साथ इस बात का भी जिक्र था कि "building masters" (राजगीरों को नौकर रखने वाले मालिकों) में जो सबसे बड़ा मुनाफ़ाडोर है, वह सर एम० पेटो नाम का व्यक्ति अपने साधुपन के लिये विख्यात है। (१८६७ के बाद इस पेटो का वही अन्त हुमा, वो स्ट्रपवर्ग का हुमा था।)