पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२६९

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२६६ पूंजीवादी उत्पादन कोम, जिसका उत्पादन अभी तक बास-श्रम, कृषि-पास-बम प्रादि की निम्न अवस्थामों में ही है, ऐसी अन्तरराष्ट्रीय मन्डी के भंवर में सिंच पाती है, जिसमें उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का बोलबाला है, और जब निर्यात के लिये तैयार की गयी पैदावार की बिक्री करना ही उसका प्रधान उद्देश्य हो जाता है, तो वैसे ही वास-प्रथा, सामन्ती काल की हरी-प्रथा प्रादि की बर्बर विभीषिकामों के साथ प्रत्यषिक परिमन की सम्य विभीषिका भी पाकर पहनाती है। इसीलिये अमरीकी संघ के दक्षिणी राज्यों में जब तक उत्पावन का मुख्य उद्देश्य तात्कालिक स्थानीय उपभोग पा, तब तक वहां के हवशियों से जिस तरह काम लिया जाता था, उसका स्वल्प कुमुछ पितृसत्तात्मक रंग का चा। लेकिन विस अनुपात में कपास का निर्यात इन राज्यों का प्रधान देश्य बनता गया, उसी अनुपात में हबशियों से प्रत्यधिक काम लेना और कभी-कभी तो उनकी पूरी बिन्दगी को ७ साल के परिभम में खर्च कर गलना स्वार्थ पर पाषारित और पाई-पाई का हिसाब रखने वाली एक व्यवस्था का अंग बनता गया। तब श्रम करने वाले से उपयोगी पैदावार की एक निश्चित मात्रा प्राप्त करने का सवाल नहीं रह गया था। तब तो खुद अतिरिक्त प्रम के उत्पादन का सवाल पैदा हो गया था। सामन्ती काल की हरी-प्रथा के साथ भी यही हुमा, जैसा कि डेन्यूब प्रदेश के राज्यों में देखने में पाया (जो अब स्मानिया कहलाते हैं)। डेन्यूब प्रदेश के राज्यों में अतिरिक्त श्रम का बो मोह देखने में पाया था, उसकी अंग्रेजी फैक्टरियों में पाये जाने वाले उसी प्रकार के मोह से तुलना करना विशेष रूप से रोचक है, क्योंकि हरी-प्रथा में अतिरिक्त मम का एक स्वतंत्र तथा इनिय-गोचर रूप होता है। मान लीनिये कि काम के दिन में ६ घन्टे मावश्यक श्रम के है और ६ घण्टे अतिरिक्त मन के। इसका मतलब यह हुमा कि स्वतंत्र मजबूर हर सप्ताह पूंजीपति को ६४६, या ३६ घन्टे का अतिरिक्त मम देता है। यह वैसी ही बात है, जैसे वह सप्ताह में ३ दिन अपने लिये और ३ दिन पूंजीपति के लिये मुफ्त काम करता हो। लेकिन यह बात खुले तौर पर दिखाई नहीं देती। अतिरिक्त मम और मावश्यक मम एक दूसरे में घुले-मिले रहते हैं। इसलिये इसी सम्बंध को मैं मिसाल के लिये यह कहकर भी व्याप्त कर सकता हूं कि मजदूर हर मिनट में ३० सेकल अपने लिये काम करता है और ३० सेकम पूंजीपति के लिये ; परह, वगैरह। सामन्ती काल की हरी-प्रथा की बात दूसरी है। लेशिया का किसान खुद अपने बीवन-निर्वाह के लिये बो पावश्यक मम करता है, वह उस अतिरिक्त मम से बिल्कुल साफ तौर पर अलग होता है, जो वह अपने सामन्त के लिये करता है। अपने लिये वह पर अपने खेत पर मन करता है और सामन्त के लिये सामन्त के खेतों पर। इसलिये उसके भम-काल के दोनों भागों का साथ-साथ और अलग-अलग स्वतंत्र अस्तित्व होता है। हरी-प्रया में प्रतिषित-मन को बिल्कुल सही तौर पर पावश्यक श्रम से अलग कर दिया जाता है। लेकिन जहां तक मावश्यक मम के साप अतिरिक्त बम के परिमाणात्मक सम्बंध का प्रश्न है, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । सप्ताह में तीन दिन का अतिरिक्त बम, बह चाहे हरी कहलाये था मजबूरी, तीन दिन का मन ही रहता है, जिसके सम-मूल्य के रूप में पूरा मजदूर को कुछ नहीं मिलता । लेकिन पूंजीपति में अतिरिक्त मन का मोह नहाँ काम के दिन का अधिक से अधिक विस्तार करने के रूप में प्रकट होता है, वहाँ सामन्त में वह सोचे-सीचे हरी के दिनों की संख्या को बढ़ाने के प्रषिक सरतप मैं वाहिर होता है। . इसके बाद जो कुछ लिखा गया है, वह क्रीमिया के युद्ध के बाद के उत्पन्न परिवर्तनों के पहले रूमानियन प्रान्तों की स्थिति से सम्बंध रखता है।