काम का दिन २६७ गेन्यूब प्रदेश में हरी जिन्स के रूप में वसूल किये जाने वाले लगान तथा कृषि-पास-प्रथा के अन्य उपांगों के साथ घुली-मिली रहती थी, परन्तु शासक वर्ग को दिये जाने वाले खिराब का अधिकांश हरी के रूप में होता था। वहां कहीं ऐसी स्थिति थी, वहां पर हरी-प्रथा कदाचित ही कृषि-वास-प्रथा से उत्पन्न हुई थी। इसके विपरीत, ऐसी जगहों में बहुधा कृषि-वास-प्रपाका जन्म हरी-प्रथा से हमापा।मानियन प्रान्तों में यही हुमा पा। इन प्रान्तों में उत्पादन की मूल पद्धति सामूहिक भू-सम्पत्ति पर तो प्राधारित थी, पर वह स्लाव अथवा हिन्दुस्तानी म के अनुरूप नहीं पी। भूमि के एक भाग को समाज के सदस्य निजी भूमि के रूप में अलग- अलग बोतते थे; एक और भाग, नो ager publleus (सार्वजनिक भूमि) कहला- ता था, वे सब मिलकर बोतते थे। इस सामूहिक बम से जो पैदावार होती थी, वह पाशिक रूप से तो बुरी फसल या कोई और दुर्घटना हो जाने पर सुरक्षित कोष का काम देती थी और मांशिक रूप में पुख, धर्म तथा अन्य सामूहिक कामों का खर्च चलाने के लिये सार्वजनिक भण्डार का काम करती थी। समय बीतने के साथ-साथ सैनिक तथा धार्मिक अधिकारियों ने सामूहिक भूमि के साथ-साथ उसपर खर्च किये जाने वाले भम को भी हपिया लिया। स्वतंत्र किसान अपनी सामूहिक भूमि पर जो श्रम करते थे, वह सामूहिक भूमि पुराने वालों के लिये की जाने वाली हरी में बदल गया। यह हरी-प्रथा विकसित होकर शीघ्र ही दासता के सम्बंध में परिणत हो गयी, जिसका वास्तव में तो अस्तित्व पा, पर कानूनी तौर पर उस बात तक नहीं था, अब तक कि संसार के मुक्तिदाता-स-ने कृषि-वास-प्रथा का अन्त करने के बहाने उसे कानूनी नहीं करार दे दिया। १८३१ में मसी जनरल किसेल्योव ने हरी-प्रथा के जिस नियम-संग्रह की घोषणा की, बाहिर है, खुद सामन्तों ने ही उसका मादेश दिया था। इस प्रकार स ने एक ही झटके में रेन्यूब प्रदेश के प्रान्तों के पनिकों को भी जीत लिया और सारे पोप के उदारपंची बौनों की कृतज्ञता भी प्राप्त कर ली। हरी-प्रथा के इस नियम-संग्रह का नाम था "Reglement organtque' | उसके अनुसार, बैलेशिया के प्रत्येक किसान को अपने तपाकषित बमीदार को जिन्स के रूप में तरह- तरह के अनेक छोटे-छोटे करों के अलावा (१) १२ दिन का साधारण श्रम, (२) १ दिन का लेत का भम और (३) १ दिन का लकड़ी होने का भम देना पड़ता है। यानी कुल मिलाकर साल में १४ दिन का अम। लेकिन प्रशास्त्र की गूह समझ का परिचय देते हुए यहां . 1 यह बात जर्मनी और खास कर प्रशिया के एल्ब नदी के पूर्व के भाग के लिये भी सच है। १५ वीं सदी में जर्मनी का किसान लगभग हर जगह एक ऐसा मादमी था, जिसको पैदावार तथा श्रम के रूप में कुछ लगान तो जरूर देना पड़ता था, पर वैसे, कम से कम व्यवहार में, वह स्वतंत्र था। बण्डनबुर्ग, पोमेरानिया, साइलीशिया और पूर्वी प्रशिया में नये-नये पाकर बसे हुए जर्मन लोग तो कानून की नजरों में भी स्वतंत्र व्यक्ति माने जाते थे। किसानों के युद्ध में अभिजात-वर्ग की विजय होने से यह बात बतम हो गयी। उसके फलस्वरूप न सिर्फ दक्षिणी जर्मनी के युद्ध में पराजित होने वाले किसान फिर से गुलाम हो गये, बल्कि १६ वीं सदी के मध्य से पूर्वी प्रशिया, बैण्डनदुर्ग, पोमेरानिया और साइलीशिया के और उसके शीघ्र ही श्लेस्विग- होल्सटाइन के स्वतंत्र किसान भी कृषि-वासों की अवस्था को पहुंच गये। (Maurer, Fronhofe, iv. vol., -- Meitzen, "Der Boden des preussischen Staats.” — Hanssen, “Leibeigenshaft in Schleswig-Holstein". - O go)
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