पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२८५

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२८२ पूंजीवादी उत्पादन वाले कारीगरों से काम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कानून की इस अन्तिम पारा से प्रकट होता है कि इस पुराने घरेलू उंग के व्यवसाय में मजदूरों से कैसा कमरतोड काम लिया . "लन्दन में रोटी बनाने वाले कारीगर का काम, माम तौर पर, रात को लगभग ग्यारह बजे शुरू होता है। उस समय वह पाटा तैयार करता है। यह बड़ी मेहनत का काम होता है। पान छोटा है या बड़ा और पाठे को कितनी देर चना है, उसके अनुसार इस काम में पाये घण्टे से पौन घण्टे तक का समय लग जाता है। उसके बाद कारीगर पाटा गूंथने के उस सन्ते पर ही लेट जाता है, जिससे पाटा घोलने की नांद के डक्कन का भी काम लिया जाता है। यह माटे की एक बोरी अपने नीचे विद्या मेता है और एक बोरी को तह देकर तकिया बना लेता है। यहां बह दो-एक घन्टे सोता है। फिर उठता है, तो पांच घण्टे तक लगातार बहुत तेजी के साथ काम करता रहता है। इस परसे में यह नांव में से प्राटा बाहर निकालता है, उसे तोलता है, सांचे में गलता है, तंदूर में रखता है, छोटी रोटियां और बढ़िया रोटियां तैयार करके पाता है, धान को तबूर के बाहर निकालता है, रोटियों को दूकान में समाता है, वगैरह वगैरह। वहां रोटी पकायी जाती है, उस कमरे का तापमान ७५ से लेकर १० गिरी तक रहता है, और छोटे कमरों में तापमान ७५ गिरी के बवाय ६० गिरी के स्थावा नसीक रहता है। जब उबल रोटी, छोटी रोटी प्रावि बनाने का काम समाप्त हो जाता है, तो उसके वितरण का काम शुरू होता है। रात भर इस तरह सस्त मेहनत करने के बाद कारीगरों का एक काफी बड़ा हिस्सा दिन में कई-कई घन्टे टोकरियों में भरी या ठेलों पर लगी रोटियों कोपर से उपर पहुंचाने में व्यस्त रहता है और बीच-बीच में उसे रोटी पकाने के कमरे में पहुंच पाना पड़ता है। इन कारीगरों को दोपहर के बाद १ बजे और ६ बजे के बीच ही मिलती है। तीसरे पहर को ये कब काम से छूटते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि मौसम कौनसा है और उनके मालिक का था किस प्रकार का तवा कितना फैला हमा है। इसी बीच कुछ और कारीगरों को शाम तक रोटियों के नये धान तनूर से निकलने के लिए पुढे रहना पड़ता है.... लन्दन में जिस मौसम में रोटियों का पंचा वास तौर पर बमकता है, उस मौसम में बेस्ट एक क्षेत्र के "पूरे नामों पर" रोटी बेचने वाले नानवाइयों के कारीगर माम तौर पर रात को ११ बजे काम प्रारम्भ करते है और दो-एक छोटे-छोटे (कमी-कभी तो बहुत छोटे) अवकाशों के साथ अगले रोज सुबह के ८ बजे तक रोटी पकाते रहते हैं। उसके बार वे दिन भर, यानी शाम के ४,५,६ और यहां तक कि ७ बजे तक, फिर रोटियां पर से उपर ले जाने का काम करते हैं या कभी-कभी तीसरे पहर को उनको फिर रोटी पकाने के कमरे में घुसकर बिस्कुट बनाने में मदद करनी पड़ती है। काम खतम करने के बाद उनको कमी-कभी पांच-छ: घन्टे और कभी केवल चार-पांच घण्टे सोने के लिए मिलते हैं, और उसके बार फिर वही कम प्रारम्भ हो जाता है। शुमवार के दिन थे सवा कुछ नली, मानी बस बजे के करीब, काम शुरू कर देते है और कभी-कभी शनिवार की रात के बचे तक पौर पाम तौर पर रविवार की सुबह के ४ या ५ बजे तक लगातार रोटी पकाने या महा-तहां पहुंचाने में लगे रहते हैं। रविवार के दिन कारीगरों को दो या तीन बार दो-एक पडे के लिए पाकर अगले दिन की रोटियों के लिए तैयारी करनी पड़ती है... “Underselling masters" 1 उप. पु., "First Report, etc." ("पहली रिपोर्ट, इत्यादि), पृ. VI (छः).।