काम का दिन ३०१ है। पूंजी को इस बात की कोई चिन्ता नहीं होती कि भन-शक्ति कितने दिन तक जीवित रहेगी। उसको तो केवल और एकमात्र इस बात की चिन्ता होती है कि काम के एक दिन में स्याना से ज्यादा भम-शाक्ति सर्च कर गली जाये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये पूंजी मजदूर की जिन्दगी को वैसे ही कम कर देती है, ते लालची किसान अपनी परती की उपज बढ़ाने के लिये उसकी उर्वरता को नष्ट कर गलता है। इस प्रकार, उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली (जो कि बुनियादी तौर पर अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन या अतिरिक्त बम का अवशोषण होती है) काम के दिन का विस्तार करने के साथ-साथ न केवल मानव-श्रम-शक्ति के विकास तथा कार्य करने के लिये प्रावश्यक साधारण नैतिक एवं शारीरिक परिस्थितियों से उसे वंचित करके उसे पतन के गढ़ में धकेल देती है, बल्कि जुब इस अम-शक्ति को भी वह समय से पहले ही पका गलती है और उसकी हत्या कर बेती है। यह किसी एक निश्चित अवधि में मजबूर का उत्पादन-काल बढ़ाने के लिये उसके वास्तविक जीवन-काल को छोटा कर देती है। लेकिन भम-शक्ति के मूल्य में उन मालों का मूल्य शामिल होता है, जो मजबूर के पुनरुत्पादन के लिये, या मजदूर वर्ग का अस्तित्व कायम रखने के लिये, मावश्यक होते हैं। इसलिये, पूंजी प्रात्म-विस्तार के अनियंत्रित मोह में पड़कर काम के दिन का अनिवार्य रूप से जो अस्वाभाविक विस्तार करती है, उसके फलस्वरूप मजदूर के जीवन की प्रषि और इसलिये उसकी मम-शक्ति की अवधि यदि कम हो जाती है, तो उसकी को शक्तियां खर्च हो गयी हैं, उनकी कमी को और जल्दी पूरा करना होगा और भम-शक्ति के पुनरुत्पादन का सार्चा पहले से बढ़ जायेगा। यह उसी तरह की बात है, जैसे कोई मशीन जितनी जल्दी घिस जाती है, उसके मूल्य के उतने ही बड़े भाग के बराबर नया मूल्य रोग पैदा करना होता है। इसलिये लगता है कि खुब पूंजी का हित भी इसी बात में है कि काम के दिन की लम्बाई सामान्य हो। गुलामों का मालिक से घोड़ा खरीदता है, वैसे ही वह मजदूर को भी खरीदता है। यदि उसका गुलाम मर जाता है, तो उसकी पूंजी दूब जाती है, जिसके स्थान की पूर्ति केवल गुलामों की मन्जी में मयी पूंजी खर्च करने से ही हो सकती है। किन्तु "बार्षिया का पान का इलाका या मिसीसिपी नदी का बलबल मानव-शरीर के लिये भले ही प्रत्यन्त घातक हों, पर इन इलाकों की खेती के लिये इनसानों की जितनी जिन्दगियों का साया होना बरी होता है, संख्या में इतनी अधिक नहीं होती कि बड़ी संख्या में हवियों का उत्पादन करने वाले वर्जीनिया और केन्टुकी के क्षेत्रों से उनकी कमी को पूरा न किया जा सके। इसके अलावा, वहां प्राकृतिक अवस्था में मितव्ययिता का खयाल गुलाम को बिन्दा रखना मालिक के हित में बरी बना देता है और इसलिये इस बात की थोड़ी गारण्टी कर देता है कि गुलाम के साथ मनुष्योचित व्यवहार किया जायेगा, वहां एक बार गुलामों का व्यापार शुरू हो जाने पर यही खयाल पुलाम से स्यावा से स्यावा मेहनत कराने की प्रेरणा देता है। कारण कि जब उसकी के बयानों को उद्धृत 1"अपनी पिछली रिपोर्टों में हम कई अनुभवी खानेद कर चुके है, जिन्होंने यह माना था कि बहुत ज्यादा देर तक काम करने से... निश्चय ही मजदूरों की कार्य-शक्ति समय से पहले समाप्त हो जाती है।" (उप. पु., ६४, पृ. XIII (तेरह)।)
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