पूंजीवादी उत्पादन पूंजीपति को अनुभव से जो कुछ मालूम होता है, वह यह है कि देश में जन-संख्या सवा पावश्यकता से अधिक होती है, यानी अतिरिक्त मम के अवशोषण करने वाली पूंजी की क्षणिक मावश्यकताबों की तुलना में जन-संस्था हमेशा स्यावा बनी रहती है, हालांकि यह प्राषिषय . में एंगेल्स की उपर्युक्त रचना देखिये), हालांकि एक जगह "स्कोटलैण्ड के बेतिहर डिस्ट्रिक्टों से लंकाशायर और चीशायर में लायी गयी कुछ लड़कियों और युवतियों के सिलसिले में निश्चय ही इस व्यवस्था का दुरुपयोग किया गया था। इस व्यवस्था के मातहत कारखानेदार एक निश्चित समय के लिये किसी मुहताज-बाने के अधिकारियों के साथ करार कर लेता था। वह मुहताज-खाने के बच्चों को रोटी-कपड़ा, रहने का स्थान और थोड़े से पैसे नकद दे देता था। मि० रेड्व के वक्तव्य का जो मंश मैं यहां उद्धृत करने वाला हूं, वह कुछ अजीब सा लगता है, खास तौर पर जब हम यह सोचते हैं कि जिस काल को इंगलैण्ड के सूती कपड़े के व्यवसाय के लिये सबसे अधिक समृद्धि का काल समझा जाता है, उस काल में भी १८६० का कोई और वर्ष मुकाबला नहीं कर सकता था और , इसके अलावा, उस वर्ष मजदूरी की दरें बहुत ही ऊंची थीं। कारण कि इंगलैण्ड में मजदूरों की यह बेहद बढ़ी हुई मांग ठीक उसी जमाने में दिखाई पड़ी थी, जिस जमाने में पायरलण्ड जन-विहीन हो गया था, इंगलैण्ड और स्कोटलैण्ड के बेतिहर जिलों से बेशुमार लोग प्रास्ट्रेलिया और अमरीका चले गये थे और इंगलैण्ड के कुछ बेतिहर जिलों में कुछ हद तक तो बेतिहर मजदूरों की जीवन-शक्ति के सचमुच जवाब दे देने के फलस्वरूप और कुछ हद तक इस कारण कि इन जिलों की फालतू पावादी को इनसान के गोश्त के व्यापारियों ने पहले ही अन्यत्र पहुंचा दिया था, पावादी सचमुच कम हो गयी थी। पर इस सब के बावजूद, मि० रेड्व का कहना है : "लेकिन इस प्रकार के श्रम की केवल उसी वक्त तलाश की जायेगी, जब और किसी प्रकार का श्रम नहीं मिलेगा, क्योंकि यह बहुत महंगा श्रम (high-priced labour) होता है। १३ वर्ष की उम्र के एक लड़के की साधारण मजदूरी ४ शिलिंग प्रति सप्ताह होगी, परन्तु ऐसे ५० या १०० लड़कों को रोटी-कपड़ा, रहने का स्थान , दवा-दारू देने तथा उनके ऊपर निगाह रखने वाले कर्मचारियों को नौकर रखने और साथ ही इन लड़कों को कुछ नकद मजदूरी देने के लिये ४ शिलिंग की लड़का प्रति सप्ताह की रकम हरगिज़ काफ़ी नहीं होगी।" ("Report of the Inspector of Factories for 30th April, 1860" ['फैक्टरियों के इंस्पेक्टर की ३० अप्रैल १९६० की रिपोर्ट'], पृ. २७।) मि० रेड्प्रव हमें यह बताना भूल जाते हैं कि जब कारखानेदार एक साथ रहने वाले ५० या १०० लड़कों को ४ शिलिंग प्रति सप्ताह में रोटी-कपड़ा, रहने का स्थान और दवा-दारू नहीं दे सकता, तब मजदूर अपने बच्चों को ये सब चीजें कैसे दे सकता है। इस उद्धरण से पाठक किन्हीं गलत नतीजों पर न पहुंच जायें, इसलिए मुझे यहां यह बता देना चाहिये कि जब से इंगलैण के सूती कपड़े के उद्योग पर श्रम-काल मादि का नियमन करने वाला १८५० का फैक्टरी-कानून लागू हो गया है, तब से उसे इंगलैंड का भाव उद्योग मानना चाहिये। इंगलैण्ड की कपड़ा-मिलों में काम करने वाले मजदूर की हालत अपने पोपीय भाई-चन्द की अपेक्षा हर दृष्टि से बेहतर है। "प्रशिया के कारखानों में काम करनेवाला मजदूर अपने अंग्रेजी प्रतिद्वन्दी के मुकाबले में हर हफ्ते कम से कम दस चष्टे पयावा काम करता है, और यदि वह अपने घर पर बैठकर पर अपने करणे पर काम करता है, तो उसका श्रम इन इस अतिरिक्त घंटों तक भी सीमित नहीं होता।" ("Rep. of - .
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