पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३१२

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काम का दिन है। १४६६ के (हेनरी सातवें के राज्य-काल में बनाये गये) परिनियम में भी निर्धारित की गयी नीं। इस परिनियम के अनुसार (जिसपर लेकिन अमल नहीं हो सका) मार्च से लेकर सितम्बर तक तमाम कारीगरों (artificers) पौर मत-मजदूरों के लिये काम का दिन सुबह को ५ बजे से शुरू होकर रात को ७और बजे के बीच बातम होना चाहिये था। लेकिन खाने के लिये अधिक समय दिया गया था: १ घण्टा सुबह नाश्ते के लिये, घण्टा भोजन के लिये और घन्टातीसरे पहर के नाश्ते के लिये ; यानी पाकल लागू फैक्टरी-कानूनों में जितना समय लाने के लिये दिया गया है, उससे ठीक दुगुना समय दिया गया था। बाड़ों में काम ५ बजे शुरू होकर दिन छिपे तक चलना चाहिये था और नाश्ते-साने प्रावि के प्रवकाशों की व्यवस्था गरमियों के ही समान थी। १५६२ का एलिवावेष के राज्य-काल का एक परिनियम है, जो "रोबाना या हफ्तेवार मजदूरी पर नौकर रखे गये" तमाम मजदूरों के काम के दिन की लम्बाई को तो नहीं छूता था, पर अवकाशों के समय को गरमियों में 2 घण्टे तक तथा बाड़ों में २ घण्टे तक सीमित कर देना चाहता था। इस परिनियम का कहना था कि भोजन का अवकाश केवल १ घण्टे का होना पाहिये और 'तीसरे पहर को प्राये का सोने का समय" केवल मई के मध्य से अगस्त के मध्य तक ही मजदूरों को दिया जाना चाहिये। अनुपस्थिति के हर एक घण्टे के लिये १ पेनी मजबूरी में से काट ली जानी चाहिये। लेकिन अमल में परिस्थितियां परिनियम की अपेक्षा मजदूरों के कहीं अधिक अनुकूल थीं। प्रशास्त्र के बनक और कुछ हद तक सांख्यिकी के संस्थापक विलियम पेटी ने १७ वीं शताब्दी की अन्तिम तिहाई में प्रकाशित अपनी एक पुस्तिका में कहा था: “मजदूर ("labouring men", जिसका मतलब उस बात येत-मजदूर' होता पा) १० घन्टे रोजाना काम करते हैं और हर सप्ताह २० बार माना जाते हैं, यानी काम के दिन ३ बार और इतवार को २ बार। इससे यह बात सष्ट है कि यदि वे शुक्रवार की रात को उपवास कर सकें और ग्यारह बजे से एक बजे तक दो घण्टे जाने में खर्च करने के बजाय षण्टे में लाना तालिया करें, तो इस तरह के २० अधिक काम करेंगे और कम खर्च करेंगे, जिससे उपर्युक्त २० 1 इस परिनियम के बारे में जे. वेड ने सच ही कहा है : “ (परिनियम के विषय में) उपर्युक्त वक्तव्य से यह प्रतीत होता है कि १४९६ में भोजन का खर्च कारीगर की एक तिहाई मामदनी और बेत-मजदूर की पाधी प्रामदनी के बराबर समझा माता था, जिससे मालूम होता है कि उन दिनों मजदूरों में प्राजकल की अपेक्षा अधिक स्वाधीनता थी। कारण कि पाजकल तो मजदूरों और कारीगरों दोनों की मजदूरी का उससे कहीं बड़ा भाग खाने पर खर्च हो जाता है।" (J. Wade, "History of the Middle and Working Classes" [जे. वेड, 'मध्य वर्ग तथा मजदूर वर्ग का इतिहास'], तीसरा संस्करण, London, 1835. पृ० २४, २५, ५७७।) कुछ लोगों का मत है कि यह अन्तर इस बात के कारण है कि उन दिनों खाने पौर पहनने की चीजों के दामों के बीच कोई और सम्बंध था और माजकल कोई और सम्बंध है। पर यह मत कितना निराधार है, यह "Chronicon Preciosum, etc." पर एक नजर डालते ही मालूम हो जाता है। · देखिये Bishop Fleetwood द्वारा लिखित यह पुस्तक, पहला संस्करण, London, 1707; दूसरा संस्करण, London, 1745.