३२४ पूंजीवादी उत्पादन अब अपनी शक्ति में विश्वास नहीं रह गया था। इसके कुछ दिन बाद पेरिस में खून का विद्रोह हमापौर उसे खून में सुबो दिया गया, और इन घटनाओं में योरपीय महादीप की तरह इंगलैग में भी शासक बों के सभी गुटों को-समीदारों और पूंजीपतियों को, स्टाक एक्सचेंज के भेड़ियों और पूकानदारों को, संरक्षनवादियों और स्वतंत्र व्यापार के समर्थकों को, सरकार और विरोधी दल को, पादरियों और स्वतंत्र चिन्तकों को, कमसिन वेश्याओं और बुड़िया सानियों को-एकताबड कर दिया। वे सब सम्पत्ति, धर्म, परिवार और समाज की रक्षा करने के लिये एक मजे के नीचे माकर खड़े हो गये। मजदुरवर्ग को हर तरफ़ कोसा जाने लगा। उसे मानो कानून की नजरों में बाग्री घोषित कर दिया गया। अब कारखानेवारों को संभल-संमलकर पलने की आवश्यकता नहीं रह गयी थी। वे न केवल १० घण्टे के कानून के खिलाफ, बल्कि उन तमाम कानूनों के खिलाफ बुली बगावत का मजा लेकर बड़े हो गये, बो १८३३ से उस समय तक बम-शक्ति के स्वतंत्र" शोषणको किसी तक सीमित करने के उद्देश्य से बनाये गये थे। यह छोटे पैमाने पर Proslavery Rebellion (गुलामी की प्रथा के समर्थन में विद्रोह) था, जिसे सारी लोक-लाज और हया-शमं को ताक पर रखकर यो वर्ष से अधिक समय तक चलाया गया और जिसमें एक बर्दस्त पातंकवादी स्फूर्ति का प्रदर्शन हमा। यह मान्दोलन इसलिये और भी बोरवार ढंग से चलाया गया कि विद्रोही पूंजीपतियों को उसमें कुछ सोने का र नहीं था; स्याना से स्यावा जो चीज सोपी जा सकती थी, वह पी बस उनके मजदूरों की चमड़ी। इसके बाद जो कुछ कहा गया है, उसे समझने के लिये हमें यह याद रखना होगा कि १८३३, १४ और १५४७ के फ्रेक्टरी-कानूनों ने विस हब तक एक दूसरे में संशोधन नहीं कर दिया था, उस हब तक ये तीनों इस बात लागू थे, और उनमें से कोई भी १८ वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों के काम के दिन को सीमित नहीं करता था।हमें यह भी याद रखना होगा कि सुबह के ५.३० बजे से लेकर रात के ८.३० बजे तक १५ घन्टे का दिन १८३३ से ही कानूनी "दिन" समझा जाता था, जिसकी सीमाओं के भीतर लड़के-लड़कियों और औरतों को कुछ निर्धारित परिस्थितियों में पहले १२ घण्टे और फिर १० घण्टे काम करना पड़ता था। कारखानेदारों ने शुरूपात इस तरह की कि वो लड़के-लड़कियां तथा पौरतें उनके यहां काम करती थी, उनमें से कुछ को और बहुत सी जगहों में तो उनकी प्राची संस्था को उन्होंने काम से जवाब दे दिया। फिर उन्होंने वयस्क पुरुषों के लिये रात का काम, बो कि लगभग बन्द हो गया था, फिर से जारी कर दिया। और शोर यह मचाया कि क्या करें, बस घण्टे का कानून बन जाने के बाद अब उनके सामने और कोई चारा नहीं है।' उनका दूसरा कदम भोजन मावि की कानूनी ही के बारे मेंथा। उसकी कहानी फैक्टरी- इंस्पेक्टरों के शब्दों में सुनिये : "जब से काम के घण्टों पर १० घण्टे की सीमा लागू हो गयी है, समी से फैक्टरियों के मालिकों का यह दावा है-हालांकि अभी उन्होंने व्यवहार में उसपर पूरी तरह अमल करना शुरू नहीं किया है-कि परि यह मान लिया जाये कि काम का समय बचे सुबह को शुल्होकर शाम को ७ बजे खतम होता है, तो (भोजन के लिये) एक घन्टा सुबह बजे के पहले और भाषा घण्टा शाम को ७ बजे के बाद मजदूरों को देकर कानून की हिदायतों को पूरा कर देते हैं। कुछ जगहों में वे अब भोजन के लिये एक घन्टा या भाषा घन्टा देने लगे है, '"Reports, &c., for 31st October, 1848" ("रिपोर्ट, इत्यादि, ३१ अक्तूबर १४'). पृ. १३३, १३४ ।
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