पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३६८

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सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की धारणा । , . भम-काल सर्च करता है, तो इससे इसके पहले की तरह पूरे १२ घण्टे तक काम करने में कोई रुकावट नहीं पाती और न ही इन १२ घण्टों में १२० के बजाय १,२०० वस्तुएं तैयार करने में कोई बापा पड़ती है। यही नहीं, इसके साथ-साथ उसके काम के दिन को और लम्बा खींचा जा सकता है, जैसे कि, मान लीजिये, १४ घण्टे तक, ताकि १,४०० वस्तुएं तैयार करायी जा सकें। प्रतएव, मैक्कुलक, उरे, सीनियर et tutti quanti (और उनकी नसल के अन्य ) प्रर्वशास्त्रियों के पंवों में हमें यदि एक पृष्ठ पर यह पढ़ने को मिलता है कि मजदूर को पूंजी का इसके लिये अनुगृहीत होना चाहिये कि वह उसकी उत्पादकता को बढ़ा देती है। क्योंकि उससे प्रावश्यक प्रम-काल घट जाता है, तो अगले ही पृष्ठ पर हम यह भी पढ़ सकते है कि मजदूर को अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये मागे से १० के बजाय १५ घण्टे रोच काम करना चाहिये। पूंजीवादी उत्पावन की सीमाओं के भीतर श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने की तमाम कोशिशों का उद्देश्य यह होता है कि काम के दिन के उस भाग को छोटा कर दिया जाये, जिसमें मजदूर को खुद अपने हित में काम करना पड़ता है, और उसे घटाकर दिन के उस भाग को बड़ा कर दिया जाये, जिसमें मजदूर को पूंजीपति के लिये मुफ्त काम करने की पावादी रहती है। मालों को सस्ता किये बिना यह चीज किस हद तक की जा सकती है, यह सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य पैरा करने की विशिष्ट प्रणालियों का अध्ययन करने पर प्रकट होगा। अब हम इन विशिष्ट प्रणालियों पर विचार करना प्रारम्भ करते हैं। . . .