श्रम का विभाजन और हस्तनिर्माण ३६१ - मिल जाती, बस्तकारी के श्रम का उपविभाजन करके कुछ हद तक वह खुब भी ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देता है। दूसरी ओर, हस्तनिर्माण महब हर मजदूर को तफसील के केवल एक प्रांशिक कार्य से जोड़कर ही भम-निया का यह सामाजिक संगठन सम्पन्न कर पाता है। तफ़सीली काम करने वाले हर मजदूर की प्राधिक पैदावार चूंकि एक ही तैयार वस्तु के विकास की एक विशेष अवस्था मात्र होती है, इसलिये हर मजदूर या मजदूरों का हरेक बल किसी अन्य मजदूर या अन्य बल के लिये कच्चा माल तैयार करता है। एक के श्रम का फल दूसरे के श्रम का प्रस्थान-बिन्दु होता है। इसलिये एक मजदूर प्रत्यक्ष रूप से दूसरे को रोची देता है। अभीष्ट प्रभाव पैदा करने के लिये हर मांशिक क्रिया के लिये कितमा श्रम-काल भावश्यक है, यह अनुभव से मालूम हो जाता है, और पूरे हस्तनिर्माण का यंत्र इस मान्यता पर पाषारित होता है कि एक निश्चित समय में एक निश्चित परिणाम हासिल किया जायेगा। इस मान्यता के पापार पर ही नाना प्रकार की अनुपूरक श्रम-क्रियाएं एक ही समय में, बिना सके और साथ-साथ चलती रह सकती हैं। यह बात स्पष्ट है कि ये क्रियाएं और इसलिये उनको सम्पन्न करने वाले मजदूर चूंकि प्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं, इसलिये उनमें से हरेक इसके लिये मजबूर होता है कि अपने काम पर पावश्यक समय से अधिक न सर्च करे, और इस तरह यहां मन की एक ऐसी निरन्तरता, एकल्पता, नियमितता, व्यवस्था और यहां तक कि एक ऐसी तीवता पैदा हो जाती है, जैसी स्वतंत्र दस्तकारी में या यहां तक कि सरल सहकारिता में भी नहीं पायी जाती। नियम है कि किसी माल पर जो श्रम-काल खर्च किया बाये, वह उसके उत्पादन के लिये सामाजिक दृष्टि से प्रावश्यक श्रम-काल से अधिक नहीं होना चाहिये। मालों के उत्पादन में साधारण तौर पर ऐसा मालूम होता है कि यह नियम केवल प्रतियोगिता के प्रभाव से ही स्थापित हो जाता है। कारण कि यदि हम बहुत सतही ढंग से अपनी बात कहें, तो हर उत्पावक अपना माल बाजार-भाव पर बेचने के लिये मजबूर होता है। इसके विपरीत, हस्तनिर्माण में एक निश्चित समय में पैदावार को एक निश्चित प्रमात्रा तैयार कर देना स्वयं उत्पादन की क्रिया का एक प्राविधिक नियम होता है।' लेकिन अलग-अलग नियामों में अलग-अलग समय लगता है और इसलिये उनके द्वारा समान समय में प्रशिक पैदावार की असमान मात्राएं तैयार होती है। प्रतः, यदि एक मजदूर को बार-बार एक ही क्रिया सम्पन्न करनी है, तो हरेक क्रिया के लिये अलग-अलग संख्या में मजदूर होने चाहिये। मिसाल के लिये, टाइप के हस्तनिर्माण में एक घिसने वाले पर चार डालने वाले और दो तोड़ने वाले होते हैं: बालने वाला क्री घन्टा २,००० टाइप डालता है, तोड़ने वाला ४,००० टाइप तोड़ता है और घिसने वाला ८,००० टाइप पर पालिश करता है। यहां पर . . . 1"प्रत्येक हस्तनिर्माण में जितने अधिक प्रकार के कारीगर काम करते हैं... प्रत्येक काम उतनी ही अधिक व्यवस्था और नियमितता से होता है, और हर काम को लाजिमी तौर पर कम समय में पूरा कर देना पड़ता है और पहले से कम श्रम खर्च होता है।" ("The Advantages, &c." ["ईस्ट इण्डिया के व्यापार के लाभ'], पृ० ६८1) 'पर, इसके बावजूद, उद्योग की बहुत सी शाबानों में हस्तनिर्माण-प्रणाली के रहते हुए भी यह बात बड़े ही प्रपूर्ण ढंग से देखने में प्राती है, क्योंकि उसे निश्चित रूप से यह मालूम नहीं होता कि उत्पादन की क्रिया की सामान्य रासायनिक एवं भौतिक परिस्थितियों पर कैसे नियंत्रण रखा जाये।
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