मशीनें और माधुनिक उद्योग ४२३ . पूरी तरह विकसित सभी मशीनें तीन बुनियादी तौर पर भिन्न भागों की बनी होती है: एक-मोटर-यंत्र, दूसरा-संचालक मंत्र और, अन्त में, तीसरा-पोवार या कार्यकारी यंत्र । मोटर-यंत्र बह होता है, जो पूरी मशीन को गति में लाता है। वह या तो खुद अपनी चालक शक्ति पैदा करता है, जैसा कि भाप से चलने वाला इंजन, गरम हवा से चलने वाला बन, विद्युत-गम्बकीय मशीन मावि करते हैं, और या उसे पहले से मौजूर किसी प्राकृतिक शक्ति से भावेग प्राप्त होता है, जैसे पन-पकी को ऊंचाई पर से नीचे गिरने वाले पानी से और पवन- पाकी को हवा से पावेग प्राप्त होता है, इत्यादि। संचालक यंत्र गतिपालकों, वासंहति, संत-मकों, पिरनियों, पट्टों, रस्सियों, पट्टियों, दांतों वाले छोटे पहियों और अनेक प्रकार के योक्त्रों का बना होता है। बह गति का नियमन करता है, वहां मावश्यकता होती है, वहां उसका म बाल देता है, जैसे कि अनुरेख गति को वृत्तीय गति में बदल देता है, और गति का विभाजन करके उसे कार्यकारी मंत्रों में बांट देता है। सम्पूर्ण मशीन के ये पहले दो भाग केबल कार्यकारी मंत्रों को गति में लाने के लिये होते हैं, जिस गति के द्वारा श्रम की विषय-वस्तु पर अधिकार करके उसे इच्छानुसार परिवर्तित कर दिया जाता है। पौवार या कार्यकारी यंत्र मशीन का वह भाग है, जिससे १८ वीं सदी की प्रौद्योगिक कान्ति प्रारम्भ हुई थी। और मान तक जब कभी कोई वस्तकारी या हस्तनिर्माण मशीन से चलने वाले उद्योग में पान्तरित किया जाता है, तो सवा इसी हिस्से से परिवर्तन प्रारम्भ होता है। कार्यकारी मंत्र का ज्यादा नजदीक से अध्ययन करने पर हम एक सामान्य नियम के तौर पर, हालांकि काफी बदले हुए म में, वही उपकरण और मौवार पाते हैं, बस्तकार हस्तनिर्माण करने वाला मजबूर जिनका इस्तेमाल करता था। अन्तर केवल इतना होता है कि मनुष्य के प्राचार होने के बजाय ये एक यंत्र के प्राचार होते हैं, या यूं कहिये कि वे यांत्रिक प्रोचार होते हैं। या तो पूरी मशीन बस्तकारी के पुराने पोलार का एक कमोबेश बबला हुमा यांत्रिक संस्करण मात्र होती है, जैसा कि, उदाहरण के लिये, शक्ति से चलने वाला करमा या रखा जाता, कहा है, मानव-इतिहास प्राकृतिक इतिहास से केवल इसी बात में भिन्न है कि उसका निर्माण हमने किया है, जब कि प्राकृतिक इतिहास का निर्माण हमने नहीं किया है ? प्रौद्योगिकी प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार पर और उत्पादन की उस क्रिया पर प्रकाश डालती है, जिससे वह अपना जीवन-निर्वाह करता है, और इस तरह वह उसके सामाजिक सम्बंधों तथा उनसे पैदा होने वाली मानसिक अवधारणामों के निर्माण की प्रणाली को भी खोलकर रख देती है। यहां तक कि धर्म का इतिहास लिखने में भी यदि इस भौतिक प्राधार को ध्यान में नहीं तो ऐसा प्रत्येक इतिहास पालोचनात्मक दृष्टि से वंचित हो जाता है। असल में जीवन के वास्तविक सम्बंधों से इन सम्बंधों के तदनुरुप दैविक सम्बंधों का विकास करने की प्रपेक्षा धर्म की धूमिल सृष्टि का विश्लेषण करके उसके लौकिक सार का पता लगाना कहीं अधिक पासान है। यही एकमात्र भौतिकवादी पद्धति है, और इसलिये यही एकमात्र वैज्ञानिक पद्धति है। प्राकृतिक विज्ञान का प्रमूर्त भौतिकवाद ऐसा भौतिकवाद है, जो इतिहास तथा उसकी प्रक्रिया को अपने क्षेत्र से बाहर रखता है। जब कभी उसके प्रवक्ता अपने विशेष विषय की सीमानों के बाहर कदम रखते हैं, तब उनकी प्रमूर्त एवं वैचारिक अवधारणामों से इस भौतिकवाद की बुटियां तुरन्त स्पष्ट हो जाती है।
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