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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/४८०

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मशीनें और माधुनिक उद्योग ४७७ इसलिये प्राविधिक दृष्टि से यचपि मशीनें अम-विभाजन की पुरानी प्रणाली का तन्ता उलट देती है, परन्तु हस्तनिर्माण से विरासत में मिली एक परम्परागत मावत के रूप में वह पटरी में जीवित रहती है और बाद को पूंजी उसको सुनियोजित ढंग से और नये सिरे से संवारकर प्रम-शक्ति का शोषण करने के साधन के तौर पर एक और भी भयानक रूप में स्थापित कर देती है। सारे जीवन एक ही पौधार से काम करने की विशिष्टता प्रब सारे जीवन एक ही मशीन की सेवा करने की विशिष्टता बन जाती है। मशीनों का प्रब मजदूर को उसके बचपन से ही तफसीली काम करने वाली किसी मशीन का अंग बना देने के उद्देश्य से दुरुपयोग किया जाता है। इस तरह, न केवल मजदूर के पुनसावन का पर्व बहुत कुछ कम हो जाता है, बल्कि उसके साथ-साथ पूरी फेक्टरी पर और इसलिये पूंजीपति पर मजबूर की निस्सहाय निर्भरता भी पूर्णता को पहुंच जाती है। अन्य प्रत्येक स्थान की भांति यहां पर भी हमें इस बात को समझना चाहिये कि उत्पावन की सामाजिक क्रिया के विकास के फलस्वरूप उत्पादकता में नो वृद्धि होती है और इस पिया के पूंजीवादी शोषण के कारण उत्पादकता में गो वृद्धि होती है, उनमें भेद होता है। बस्तकारियों तथा हस्तनिर्माण में मजदूर पोचार को इस्तेमाल करता है, फेक्टरी में मशीन मजदूर को इस्तेमाल करती है। वहां मम के प्राचारों की जियायें मजदूर से शुरू होती है, यहां पर उसे खुद मशीन की पियानों का अनुकरण करना पड़ता है। हस्तनिर्माण में मजदूर एक पीवित संघटन के अंग होते हैं। फैक्टरी में मजदूरों से स्वतंत्र एक निर्जीव यंत्र होता है और मजदूर इस यंत्र के मात्र जीवित उपांगों में बदल जाते हैं। "अन्तहीन श्रम और मेहनत का वह नीरस नित्यक्रम, जिसमें एक ही यांत्रिक क्रिया को बार-बार बोहराना पड़ता है, सिलाइफस के बम के समान होता है। सिलाइफस के पत्थर की तरह यहां पर श्रम का बोला बारबार सदा इस बके हुए मजदूर पर ही मार गिरता है। फैक्टरी का काम नहीं स्नायु-मनाल को हर से स्थाना पका गलता है, वहां उसके साथ-साथ उसमें मांस-पेशियों की . धों की विलक्षण धारणा के खण्डन के लिये इतना काफ़ी है। वह मशीन का अर्थ यह नहीं लगाते कि वह श्रम के साधनों का योग होती है, बल्कि यह कि खुद मजदूर के हित में तफ़सीली क्रियामों का समन्वय ही मशीन होता है। 'F. Engels, उप० पु०, पृ. २१७ । स्वतंत्र व्यापार के मि० मोलिनारी जैसे एक साधारण तथा प्राशावादी समर्थक ने भी यहां तक कह डाला है कि "Un homme suse plus vite en surveillant, quinze heures par jour, l'évolution uniforme d'un mé canisme, qu'en exerçant, dans le même espace de temps, se force physique. Ce travail de surveillance qui servirait peut-être d'utile gymnastique à l'intelligen- ce, s'il n'était pas trop prolongé, détruit à la longue, par son excès, et l'intel- ligence, et le corps meme." ["जब कोई पादमी पन्द्रह घण्टे रोजाना किसी यंत्र की एकरूपी क्रियानों की देखरेख करता है, तो वह उस मादमी की अपेक्षा अधिक जल्दी थक जाता है, जो इतने ही समय तक खुद अपनी शारीरिक शक्तियों से काम लेता है। देखरेख का यह काम अगर अनुचित ढंग से बहुत देर तक न खींचा जाता, तो शायद बुद्धि के विकास में सहायक होता। पर यहां पर वह अन्त में अपने पतिरेक से मन और शरीर दोनों को नष्ट कर गलता है।"] (G. de Molinari, "Etudes Economiques", Paris, 1846.)