५०८ पूंजीवादी उत्पादन . - पौन उत्पादन के साधनों में लगा दिये जाते हैं और ३०० पासपोज की भावमी के हिसाब से भम-शक्ति पर खर्च कर दिये जाते हैं। जब मशीनों का इस्तेमाल होने लगता है, तो इस पूंजी की संरचना बदल जाती है।हम यह मान लेते हैं कि उसके पांच में से चार हिस्से स्थिर पूंजी के हो जाते हैं और स्थिर पूंजी केवल एक हिस्सा रह जाती है, जिसका मतलब यह है कि अब श्रम-शक्ति पर केवल १०० पौण ही सर्च किये जाते हैं। पुनांचे, दो तिहाई मजदूरों को जवाब मिल जाता है। अब यदि व्यवसाय का विस्तार हो जाता है और उसमें लगी हुई कुल पूंजी पहले जैसी परिस्थितियों में ही बढ़कर १,५०० पौण हो जाती है, तो मजदूरों की संस्था बढ़कर ३००, अर्थात् उतनी ही हो जायेगी, जितनी वह मशीनों के इस्तेमाल के पहले पी। यदि पूंजी में और भी वृद्धि होती है और वह २,००० पौड हो जाती है, तो ४०० मजदूरों से काम लिया जायेगा, अर्थात् पुरानी व्यवस्था में जितने भावमी काम करते थे, उनसे एक तिहाई स्यावा मजदूर नौकर रखे जायेंगे। इस तरह, असल में तो मजदूरों की संख्या में १०० की वृद्धि हो जाती है, पर तुलनात्मक दृष्टि से देखिये , तो उसमें ८०० की कमी पा जाती है, क्योंकि पुरानी व्यवस्था में २,००० पौण की पूंजी को ४०० के बजाय १,२०० मजदूरों को नौकर रखना पड़ता। इसलिये, मजदूरों की संख्या में वास्तव में वृद्धि होने पर भी तुलनात्मक कमी पा सकती है। ऊपर हम यह मानकर चल रहे थे कि कुल पूंजी तो बढ़ जाती है, पर उसकी संरचना ज्यों की त्यों रहती है, क्योंकि उत्पादन की परिस्थितियां एक सी रहती हैं। लेकिन हम पहले ही यह देख पुके हैं कि मशीनों के उपयोग में जब कभी प्रगति होती है, तो पूंजी का स्थिर अंश, यानी वह भाग, जो मशीनों, कच्चे माल प्रादि में लगाया जाता है, बढ़ जाता है और अस्थिर अंश, यानी वह भाग, बो श्रम-शक्ति पर खर्च किया जाता है, घट जाता है। हम यह भी जानते हैं कि उत्पादन की किसी भी अन्य व्यवस्था में फैक्टरी-व्यवस्था के समान निरन्तर सुधार नहीं होता और उद्योग में लगी पूंजी की संरचना भी इस निरन्तर डंग से अन्य किसी व्यवस्था में नहीं बदलती जाती। किन्तु इन परिवर्तनों के बीच में बार-बार अवकाश का समय माता रहता है, जब पहले से मौजूर प्राविधिक पापार पर फ़ैक्टरियों का केवल परिमाणात्मक विस्तार होता है। ऐसी प्रवषियों के दौरान कामगारों की संख्या बढ़ जाती है। नाचे, १८३५ में संयुक्तांगल राज्य की सूती, ऊनी और बठे हुए ऊन का सामान तैयार करने वाली मिलों तथा पूर्वक्स और रेशम की पटरियों में मजदूरों की कुल संख्या केवल ३,५४,६८४ थी, जबकि १८६१ में अकेले शक्ति से चलने वाले करों पर काम करने वाले गुनकरों की संख्या (जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों और पाठ पर्व से ऊपर की हर पाय के मजदूर शामिल थे) २,३०,६५४ हो गयी थी। निश्चय ही उस समय यह वृद्धि कम महत्वपूर्ण मालूम होती है, जब हम यह पार करते हैं कि १८३८ तक हाप के करघे पर काम करने वाले बुनकरों की संख्या उनके परिवारों के लोगों समेत ८,००,००० पी।और एशिया तथा योरपीय 1"हाथ के करघे पर काम करने वाले बुनकरों की यातनामों की एक शाही पायोग ने जांच की थी, लेकिन यद्यपि उनके कष्टों को सब ने स्वीकार किया और उनपर दुःख भी प्रकट किया, तथापि उनकी दशा को सुधारने का प्रश्न संयोग तथा समय के परिवर्तनों के हाथ में छोड़ दिया गया, और शायद ऐसा करना आवश्यक भी था। प्रव" (२० वर्ष बाद! ) "यह माशा की जा सकती है कि संयोग ने और समय के परिवर्तनों ने इन कष्टों को लगभग (nearly) दूर कर दिया होगा, और बहुत मुमकिन है कि इसका कारण यह हो कि वर्तमान काल में .
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