५२२ पूंजीवादी उत्पादन और बहुत ही कम-उन्न बच्चों को प्रत्यन्त प्रविवेकपूर्ण ढंग से बहरीले अथवा हानिकारक पदार्थों के प्रभाव का शिकार बनने दिया जाता है। हस्तनिर्माण की अपेक्षा तथाकषित घरेलू उद्योग में यह शोषण और भी बेशर्मी के साथ किया जाता है। इसका कारण यह है कि मजबूर जितना अधिक विसर जाते हैं, उतना ही उनकी प्रतिरोध करने की शक्ति कम हो जाती है। इसका यह भी कारण है कि इस तथाकषित घरेलू उद्योग में मालिक और मजदूर के बीच बहुत सारे मुफ्तखोर लुटेरे घुस पाते हैं। फिर घरेलू उद्योग को सदा या तो फेक्टरी-व्यवस्था के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ती है, या उत्पादन की उसी शाला में हस्तनिर्माण के साथ। इसके साथ-साथ इसकी यह वजह भी है कि गरीबी मजदूर से स्थान, प्रकाश और शुद्ध वायु मावि तमाम ची छीन लेती है, जो उसके श्रम के लिये अत्यन्त पावश्यक होती हैं। फिर मजदूरों का नौकरी पाना अधिकाधिक अनिश्चित होता जाता है। और अन्तिम कारण यह है कि प्राधुनिक उद्योग और खेती मजदूरों की जिस विशाल संख्या को “फालतू" बना देती है, उसका पाखिरी सहारा ये घरेलू उद्योग होते हैं और इसलिये यहां पर काम पाने के लिये मजदूरों की होड़ चरम सीमा पर पहुंच जाती है। क्रैक्टरी-व्यवस्था में ही सबसे पहले सुनियोजित ढंग से उत्पादन के साधनों के खर्च में मितव्ययिता बरती जाती है। और उसके साथ-साथ वहां पर शुरू से ही पाल बन्द करके श्रम-शक्ति का अपव्यय किया जाता है और भन के लिये जो परिस्थितियां सामान्य रूप में प्रावश्यक होती है, उन्हें छीन लिया जाता है। अब उद्योग की किसी खास शाखा में श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्ति तथा उत्पादन-क्रियामों के योग के लिये प्रावश्यक प्राविधिक मापार जितने कम विकसित होते हैं, उस शाला में इस प्रकार की मितव्ययिता का विरोधी और घातक स्वरूप उतना ही अधिक सुलकर सामने आ जाता है। . . (ग) माधुनिक हस्तनिर्माण अपर जिन सिद्धान्तों की स्थापना की गयी है, अब मैं उनके उदाहरण प्रस्तुत करूंगा। असल में तो पाक काम के दिन वाले अध्याय में दिये गये अनेक उदाहरणों से पहले ही परिचित है। विनिधन और उसके पास-पड़ोस में धातु का सामान तैयार करने वाले हस्तनिर्मागों में १०,००० स्त्रियों के अलावा ३०,००० बच्चे और लड़के काम करते हैं, और उनमें से अधिकतर से भारी काम लिया जाता है। वहां उनको पीतल की उलाई करने वाले कारखानों में, बटन बनाने वाली फ्रेंक्टरियों में और मीनाकारी करने वाले, जस्ते की कलई बढ़ाने वाले और लाल की पालिश करने वाले कारखानों काम करते हुए देखा जा सकता है। इन सभी कारखानों में बड़ी प्रस्वास्थ्यप्रद परिस्थितियां होती हैं। लन्दन कुछ ऐसे छापेखानों में, जहां प्रखबार और किताबें छपती है, बयस्क मजदूरों और बच्चों, दोनों से ही इतना अधिक मन कराया जाता है कि लोगों ने इन्हें "कसाई-बरों"का मनहूस नाम दे रहा है। जिल्लसाची में भी इसी तरह की त्यावतियां की जाती है, वहाँ मुल्यतया स्त्रियां, लड़कियां और बच्चे और पाजकल तो बच्चों से शेफील्ड के रेती बनाने वाले कारखानों में भी काम: लिया जाता है। ICh. Empl. Comm. V. Rep., 1866", ('बाल-सेवायोजन पायोग की ५ वीं रिपोर्ट, १८६६'), पृ. ३, अंक २४. पृ. ६, अंक ५५, ५६, पृ०५, अंक ५९,६०।
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