५२४ पूंजीवादी उत्पादन और फिर ऊपर पाकर २१० फूट की पूरी तक चलती थी और इस तरह रोजाना १० टन बोला डोती थी। परंतों के भट्टे की इस नरक-भूमि में से कोई बच्चा गुबर पाये और उसका घोर नैतिक पतन न हो, यह प्रसन्भव है... इन बच्चों को बाल्यावस्था से ही गन्दी बवान सुनने की पावत हो जाती है। उनका विकास प्रमचाने में गंदी, फूहा और बेशर्मी की पावतों के बीच होता है। पाये जंगली हो जाते हैं और बड़े होकर उच्छंसल, बदमाष और भावारा हो जाते हैं... नैतिक पतन का एक भयानक कारण उनके जीवन का रंग होता है। सांचे में सपल डालने वाला हरेक कारीगर (moulder), वो सवा एक निपुण मजदूर और एक प्रत्ये का मुखिया होता है, अपने ७ मातहतों को अपनी मोपड़ी में रहने के लिये स्थान देता है और उनकी रोटी का प्रबंध करता है। उसके मातहत काम करने वाले इन पुरुषों, लड़कों और लड़कियों को, चाहे उसके परिवार के सदस्य हों या न हों, उसी एक मॉपड़े में सोना पड़ता है। हर शॉपड़े में पाम तौर पर दो और कभी-कभी इकोरियां होती है, जो सब की सब नीचे पाली मंजिल में होती हैं और जिनमें ताला हवा बहुत ही कम होती है। ये लोग दिन भर के काम के बाद इतना ज्यादा पक जाते हैं कि फिर न तो स्वास्थ्य और सफाई के नियमों का तनिक भी पालन करते हैं और न ही मर्यादा का कोई खयाल रखते हैं। इन मॉपड़ियों में से बहुत सी गंगी, कूड़े और धूल का नमूना होती है... कम-उन्न लड़कियों से इस प्रकार का काम लेने वाली इस व्यवस्था की सबसे बड़ी पुराई यह है कि वह सदा इन लड़कियों को उनके बचपन से ही और बार के उनके समस्त बीवन के लिये हब से ज्यादा बिगड़े हुए लोगों के साथ बांध देती है। इसके पहले कि प्रति उनको यह सिखा सके कि नारियां है, लड़कियां उहण और गंदी बातें बकने वाले लड़कों ("rough, foul-mouthed boys') में बदल जाती हैं। कपड़ों के नाम पर चंद गंदे पीपड़े उनके बदन पर लटकते रहते हैं, उनकी टांगें घुटनों के भी बहुत ऊपर तक नंगी रहती है, बाल और बेहरा मन से का रहता है। मर्यादा तवा लग्ना की प्रत्येक भावना को उपेक्षा की दृष्टि से देखना सीख जाती हैं। जाने की ङ्गी के समय सेतों में चित लेटी पहती है या पास की नहर में सड़कों को नहाते. हुए देखा करती है। बब उनकी दिन भर की सन्त मेहनत प्रातिर बातम होती है, तो कुछ बेहतर कपड़े पहन-पहनकर मा के साथ शराबवानों की तरफ चल देती हैं। "ऐसी हालत में यह स्वाभाविक ही है कि इस पूरे वर्ग में बचपन से ही हर से प्यावा शराब पी पाती है।" सबसे खराब बात यह है कि ईटें बनाने वाले पर भी अपने बारे में निराश हो जाते हैं। उनमें से एक अपेक्षाकृत भले पावनी ने साउवालफील के एक पावरी से कहा नाकि बनाव, किती बनाने वाले को सुधारने की कोशिश करना शैतान को सुधारने के बराबर है। यहाँ तक इस बात का ताल्लुक है कि माधुनिक हस्तनिर्माण में (जिसमें मैं असली पटरियों को छोड़कर बड़े पैमाने के बाकी सभी कारखानों को शामिल करता हूं) मम के लिये मावश्यक वस्तुओं के सम्बंध में पूंजी किस प्रकार की मितव्ययिता बरतती है, इस विषय से सम्बषित सरकारी सामग्री सार्वजनिक स्वास्थ्य की बीवी (१८६१) और छठी (१८६५) . 1 "Ch. Empl. Comm. V Rep., 1866" ('बाल-सेवायोजन भायोग की ५'वीं रिपोर्ट, १९६६'), पृ. XVI-XVI (सोलह-प्रारह), अंक १६-१७, और पृ० १३०- १३३, अंक ३६-७१। इसके अलावा, "III Rep., 1864" ('तीसरी रिपोर्ट, १८६४') के ०४८, ५६ भी देखिये।
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