पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/५४४

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मशीनें और प्राधुनिक उद्योग ५४१ ("usages which have growm with the growth of trade"), और उन्हें भी, प्राविधिक बापामों की तरह ही, गरबमय पूंजीपति काम के स्वरूप से उत्पन्न प्राकृतिक बापानों के रूप में पेश करते में और करते हैं। जब सूती व्यवसाय के स्वामियों के लिये पहली बार फैक्टरी-कानूनों का खतरा पैदा हुमा था, तो उन्होंने खास तौर पर इस तरह का शोर मचाया था। यद्यपि अन्य किसी भी उद्योग की अपेका उनका उद्योग नौ-परिवहन पर अधिक निर्भर करता है, तथापि अनुभव ने उनके प्रचार को खून सिद्ध कर दिया है। उस समय से बब कमी मालिकों ने किसी रुकावट का बहाना बनाया है, तब फैक्टरी-स्पेक्टरों ने उसे सदा महब पोले की बट्टी समझा है। पूरी ईमानदारी के साथ काम करने वाले Children's Employment Commission (बाल-सेवायोजन पायोग) की खोज से यह सिद्ध हो जाता है कि काम के घरों के नियमन का कुछ उद्योगों में यह फल हमा है कि पहले से ही काम में लगे हुए भम को अब पूरे साल पर प्रषिक समतुलित रूप में फैला दिया जाता है कि फैशन की महीन और घातक सनक पर, उस सनक पर, जो माधुनिक उद्योग की व्यवस्था से कतई मेल नहीं खाती, इस नियमन के रूप में पहली बार एक विवेकसंगत लगाम लगायी गयी थी कि महासागरों के मौ-परिवहन और माम तौर पर संचार के सभी प्रकार के साधनों के विकास के फलस्वरूप वह प्राविधिक मापार . 1 11 किया जाता, कुछ भी 'जहाज से माल भेजने के जो भार मिलते है, उनको यदि ठीक समय पर पूरा नहीं तो व्यवसाय में बड़ी हानि होती है। मुझे याद है कि १८३२ पौर १८३३ में फैक्टरी-मालिकों की यह एक प्रिय दलील हुमा करती थी। अब इस विषय पर जो जा सकता है, उसमें वह जोर नहीं हो सकता, जो उस समय तक हुमा करता था, जब तक कि भाप ने हर दूरी को प्राधा नहीं कर दिया था और यातायात के नये नियमों की स्थापना नहीं कर दी थी। उन दिनों जब इस तर्क को प्रमाण की कसौटी पर कसा गया था, तो वह सर्वथा असफल रहा था, और अब भी यदि उसे परखकर देखा जाये, तो इसमें सन्देह नहीं कि वह झूठा ही सिद्ध होगा।" ("Reports of Insp. of Fact., 31 Oct., 1862" ["फैक्टरी- इंस्पेक्टरों की रिपोर्ट, ३१ अक्तूबर १९६२'], पृ. ५४, ५५।) ."Ch. Empl. Comm. IV Rep." ('बाल-सेवायोजन भायोग की चौथी रिपोर्ट'), पृ. XVIII (अठारह), अंक ११८ । 3 जान बैलेर्स ने १६६९ में ही यह कह दिया था कि "फैशन की अनिश्चितता से अवश्य ही जरूरतमन्द गरीबों की संख्या में वृद्धि होती है। उसमें दो बड़ी बुराइयां होती हैं। पहली यह कि कारीगर जाड़ों में काम के प्रभाव से बहुत दुःखी रहते हैं; जब तक वसन्त नहीं पा जाता और यह नहीं मालूम हो जाता कि तब क्या फैशन होगा, उस वक्त तक कपड़ों के सौदागर तथा उस्ताद बुनकर अपना स्टाक बाहर निकालने की हिम्मत नहीं करते और इसलिये कारीगरों को काम नहीं दे पाते। दूसरी दुराई यह है कि वसन्त में कारीगर काफी नहीं होते, लेकिन उस्ताव बुनकरों को तीन या छ: महीने के अन्दर राज्य के पूरे व्यापार की पूर्ति कर देने के लिये बहुत सारे शागियों को भर्ती करना पड़ता है, जिससे बेती में हलवाहों की कमी हो जाती है, देहाती इलाके मजदूरों से बाली हो जाते है और शहर प्रायः भिवारियों से भर जाते है, और जो लोग भीख मांगने में सकुचाते है, पाड़ों में भूबों मरने लगते है।" ("Essays about the Poor, Manufactures, &c." ['गरीबों, हस्तनिर्माणों मादि के विषय में निबंध'], पृ०९।)