मशीनें और माधुनिक उद्योग ५४७ बाले मजदूरों का इक्का-मुक्का उपयोग करके और कुछ हद तक स्त्रियों और बच्चों के मन का तथा ग्राम तौर पर सस्ते मनिपुण मम का उपयोग करके और इस तरह एक नये प्राधार पर प्रम-विभाजन को पुनः स्थापित करके यह चीन की जाती है। हस्तनिर्माण के भम-विभाजन और माधुनिक उद्योग के तरीकों में पाया जाने वाला विरोष बलपूर्वक सामने प्राता है। अन्य बातों के अलावा, वह इस भयानक तम्य में व्यक्त होता है कि माधुनिक फैक्टरियों और हस्तनिर्माणों में जिन बच्चों से काम लिया जाता है, उनमें से अधिकतर अपने प्रत्यन्त प्रारम्भिक वर्षों से ही सरलतम क्रियानों से बंध जाते हैं,वों तक उनका शोषण होता रहता है, पर उनको एक भी ऐसा काम नहीं सिखाया जाता, जो उनको बाद में इसी हस्तनिर्माण या फैक्टरी में भी किसी मसरफ का बना देता। मिसाल के लिये, इंगलैग में टाइप की छपाई के व्यवसाय में पहले पुराने हस्तनिर्माणों और बस्तकारियों से मिलती-जुलती यह व्यवस्था थी कि काम सोलने वाले मजदूरों को हल्के काम से मशः अधिकाधिक कठिन काम दिया जाता था। इस तरह वे शिक्षा के एक पूरे दौर से गुजरते थे और अन्त में छपाई में निपुण बन जाते थे। उनके बंधे की यह एक मावश्यक शर्त थी कि उनमें से हर भावमी पढ़ना और लिखना जानता हो। पर छपाई की मशीन ने पाकर ये सारी बातें बदल दी। यह मशीन दो प्रकार के मजदूरों से काम लेती है: एक तो वयस्क मजदूरों से, जो मशीन की देखभाल करते हैं, और, दूसरे, प्रायः ११ से १७ वर्ष तक के लड़कों से, जिनका एकमात्र काम यह होता है कि वे या तो कागज के ताव मशीन के नीचे बिछाते जाते हैं और या मशीन से छप-छपकर निकलने वाले तावों को उठाकर रखते जाते हैं। खास तौर पर लन्दन में ये लड़के यह पकाने वाला काम हफ्ते में कई दिन रोजाना १४, १५ र १६ घण्टे तक लगातार करते जाते हैं, और अक्सर वे ३६ घण्टे तक यह काम करते हैं और बीच में भोजन और सोने के लिये उनको केबल २ घण्टे की छुट्टी मिलती है। उनमें से अधिकतर पढ़ना नहीं जानते, और पाम तौर पर वे पूरे जंगली और बहुत ही असाधारण ढंग के जीव होते हैं। " उन्हें जो काम करना पड़ता है, उसे सीखने के लिये किसी प्रकार की बौद्धिक शिक्षा की आवश्यकता जहां कहीं भादमियों के द्वारा चलायी जाने वाली दस्तकारी की मशीनें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में यांत्रिक शक्ति द्वारा चलायी जाने वाली अधिक विकसित मशीनों से प्रतियोगिता करती हैं, वहां मशीन चलाने वाले मजदूर के सम्बंध में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाता है। शुरू- शुरू में भाप का इंजन इस मजदूर का स्थान ले लेता है, बाद को उसे भाप के इंजन का स्थान लेना पड़ता है। चुनांचे, तनाव बहुत बढ़ जाता है और खर्च होने वाली श्रम-शक्ति की मात्रा बेहद बढ़ जाती है। और उन बच्चों के सम्बंध में यह बात खास तौर पर देखने में माती है, जिनको यह यातना भोगनी पड़ती है। जांच-कमीशन के सदस्य मि० लोंगे ने कोवेष्ट्री और उसके पास-पड़ोस में १० से १५ वर्ष तक के बच्चों को पट्टी से चलने वाले करघे चलाते हुए देखा था। इतना ही नहीं, इससे भी छोटे बच्चों को कुछ छोटी मशीनें चलानी पड़ रही थीं। "यह असाधारण रूप से थका देने वाला काम है। लड़का महज भाप की शक्ति का एवजी होता है। ("Ch. Empl. Comm. V Rep. 1866" ['बाल-सेवायोजन पायोग की ५ वीं रिपोर्ट, १९६६'], पृ० ११४, अंक ६।) सरकारी रिपोर्ट ने उसे “गुलामी की इस व्यवस्था' का नाम दिया है। उसके घातक परिणामों के बारे में देखिये उप० पु०, पृ० ११४ और उसके मागे के पृष्ठ । 'उप० पु०, पृ० ३, अंक २४ । " . 35.
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