५४८ पूंजीवादी उत्पादन नहीं होती। इस काम में निपुणता के लिये बहुत कम और चतुराई के लिये उससे भी कम गुंबाइस होती है। इस नाते कि वे लड़के होते हैं, उनकी मजदूरी अधिक ही होती है, पर उनकी मायु के बढ़ने के साथ-साथ उसमें सानुपतिक बुद्धि नहीं होती और उनमें से अधिकतर यह माशा नहीं बांध सकते कि किसी दिन उनको मशीन की देखरेख करने वाले मजदूर का बेहतर मजदूरी और प्यावा जिम्मेवारी बाला पर मिल जायेगा,-कारण कि हर मशीन की देखरेख करने के लिये जहां केवल एक मजदूर होता है, वहां उसके मातहत कम से कम दो और अक्सर चार लड़के काम करते हैं। यह काम बच्चे ही करते हैं, और जब उनकी उन बढ़ जाती है, यानी १७ के करीब हो जाती है, तो उनको छापेखानों से जवाब मिल जाता है। तब उनके अपराधियों की सेना में भर्ती होने की सम्भावना हो जाती है। कई बार उनको कहीं और नौकरी दिलवाने की कोशिश की गयी, पर उनकी जहालत और वहशीपन के कारण और उनके मानसिक एवं शारीरिक पतन के कारण कोई कोशिश कामयाब नहीं हुई। हस्तनिर्माण करने वाले कारखानों के भीतर पाये जाने वाले भम-विभाजन के लिये वो बात सच है, समाज के भीतर पाये जाने वाले श्रम-विभाजन के लिये भी वही सच है। जब तक बस्तकारी पौर हस्तनिर्माण सामाजिक उत्पादन का सामान्य मूलाधार रहते हैं, तब तक उत्सावक का उत्पादन की केवल एक विशिष्ट शाखा के प्रवीन रहना और उसके बंधे की बाल्पता का छिन्न-भिन्न हो जाना' पाने के विकास का एक प्रावश्यक कदम होता है। इस मूनापार के सहारे उत्पादन की हर अलग-अलग शाला अनुभव के द्वारा वह खास रूप प्राप्त कर लेती है, जो प्राविधिक दृष्टि से उसके लिये उपयुक्त होता है, उसको धीरे-धीरे विकसित करती जाती है, और जैसे ही यह रूप एक निश्चित मात्रा में परिपक्वता प्राप्त कर लेता है, वैसे ही उसका तीवता के साथ स्फटिकीकरण हो जाता है। वाणिज्य से जो नया कच्चा माल मिलने लगता है, उसके अतिरिक्त केवल एक ही चीन है, वो वहां-तहां कुछ परिवर्तन कर देती है। वह है मन के प्राचारों में होने वाले कामिक परिवर्तन । परन्तु अनुभव से एक बार निश्चित हो जाने के बाद श्रम के प्राचारों का स्म भी पपरा जाता है, जो इस बात से सावित है कि अनेक प्रौबार पिछले कई हजार वर्षों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को एक ही म में मिलते गये हैं। यह बात बहुत पर्व रखती है कि अगरहवीं सदी तक भी अलग-अलग . 1उप० पु०, पृ. ७, नोट ६०। "यह बहुत वर्ष पहले की बात नहीं है कि स्कोटलैण्ड के पर्वतीय प्रदेश के कुछ भागों में, सांख्यिकीय विवरण के अनुसार, हर किसान खुद अपने हाथ से कमाये हुए चमड़े के जूते बनाकर पहना करता था। बहुत से गड़रिये और किसान भी अपने बीवी-बच्चों के साथ ऐसे कपड़े पहनकर गिरजाघर में पहुंचते थे, जिन्हें केवल उन्हीं के हाथों ने छुमा होता था, क्योंकि उनका ऊन वे पर अपनी भेड़ों को मूंडकर तैयार करते थे और फ्लैक्स उनके अपने खेतों में उगा था । यह भी बताया जाता है कि इन कपड़ों को तैयार करने के लिये सूजा, सुई, अंगुश्ताना और बुनाई में इस्तेमाल होने वाले लोहे की कल के कुछ इने-गिने हिस्सों को छोड़कर और कोई भी चीज खरीदी नहीं जाती थी। रंग भी स्त्रियों द्वारा मुख्यतया पेड़ों, झाड़ियों और जड़ी-बूटियों से तैयार किये जाते थे।" (Dugald Stewart, "Works" [" रचनाएं'], Hamilton का संस्करण, बंण्ड ८, पृ. ३२७-३२८1)
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