निरपेक्ष और सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य ५७५ . 'तुलनात्मक मात्रामों अतिरिक्त मूल्य भी निरपेक्ष होता है, क्योंकि उसके लिये काम के दिन को खुद मजबूर के अस्तित्व के लिये प्रावश्यक श्रम-काल के प्रागे निरपेक ढंग से सींचना बरी होता है। निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य सापेन होता है, क्योंकि उसके लिये श्रम को उत्पादकता का एक ऐसा विकास मावश्यक होता है, जो प्रावश्यक श्रम-काल को काम के दिन के एक भाग तक ही सीमित बना रहने है। परन्तु यदि हम अतिरिक्त मूल्य के व्यवहार को ध्यान में रखें, तो यह दिखावटी एकरूपता गायब हो जाती है। उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली के एक बार कायम हो जाने और सामान्य बन जाने के बाद जब कभी अतिरिक्त मूल्य की बर को ऊपर उठाने का सवाल सामने प्राता है, तब निरपेक्ष और सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य का भेद हमेशा अपना जोर दिखाता है। यह मान लेने के बाद कि श्रम-शक्ति की उजरत उसके मूल्य के अनुसार दी जाती है, हमारे सामने ये दो विकल्प पाते हैं : एक यह कि यदि मम की उत्पादकता और उसकी सामान्य तीव्रता पहले से निश्चित हो, तो अतिरिक्त मूल्य की दर को ऊपर उठाने का केवल एक यही तरीका है कि सचमुच काम के दिन को लम्बा खींचा जाये और दूसरा यह कि यदि काम के दिन की लम्बाई पहले से निश्चित हो, तो अतिरिक्त मूल्य की बर को केवल काम के दिन के वो संघटक भागों की-अर्थात् प्रावश्यक श्रम और अतिरिक्त श्रम की- में परिवर्तन करके ही प्रषिक किया जा सकता है। यदि मजदूरी को श्रम-शक्ति के मूल्य के नीचे नहीं गिर जाना है, तो ऐसा परिवर्तन लाने के लिये या तो श्रम की उत्पादकता या उसकी तीव्रता में तबदीली करनी होगी। यदि मजदूर को अपना सारा समय अपने तथा अपने बाल-बच्चों के जीवन-निर्वाह के प्रावश्यक साधन पैदा करने में दे देना पड़े, तो दूसरों के वास्ते मुफ्त में काम करने के लिये उसके पास कोई समय न बचेगा। जब तक उसके श्रम में एक खास वर्जे की उत्पादकता नहीं होती, तब तक उसके पास ऐसा कोई फालतू समय नहीं हो सकता ; और जब तक उसके पास ऐसा फालतू समय नहीं होता, तब तक वह कोई अतिरिक्त श्रम नहीं कर सकता और इसलिये तब तक न तो पूंजीपति हो सकते हैं, न गुलामों के मालिक और न ही सामन्ती प्रभु,-थोड़े में यों कहा जा सकता है कि फालतू समय के प्रभाव में बड़े मालिकों का कोई भी वर्ग नहीं हो सकता। इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि अतिरिक्त मूल्य का एक प्राकृतिक प्राधार होता है। पर यह बात हम केवल इस अत्यन्त सामान्य पर्व में ही कह सकते हैं कि जिस प्रकार यदि कोई पादमी दूसरे पादमी का मांस खाना चाहता है, तो कोई ऐसी प्राकृतिक बाधा उसके रास्ते में नहीं पाती, बो उसके लिये अपनी इच्छा को पूरा करना असम्भव बना दे और जिसपर काबू पाना उसके लिये नामुमकिन हो,' उसी प्रकार यदि कोई पादमी अपने जीवन-निर्वाह के लिये मम करने का बोझा अपने सिर से उतारकर किसी दूसरे पादमी के सिर पर लादना - 1 1" एक विशिष्ट वर्ग के रूप में मालिक पूंजीपतियों का अस्तित्व ही उद्योग की उत्पादकता पर निर्भर करता है।" (Ramsay, उप० पु., पृ. २०६।) “यदि हर पादमी का श्रम केवल उसका अपना भोजन तैयार करने के लिये ही पर्याप्त होता, तो किसी भी प्रकार की सम्पत्ति का होना असम्भव था। (Ravenstone, उप. पु., पृ० १४, १५।) 'हाल में अनुमान लगाया गया है कि दुनिया के जिन हिस्सों की खोज हो चुकी है, उनमें कम से कम १,००,००० भादमडोर रहते हैं।
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