पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६००

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अतिरिक्त मूल्य की दर के विभिन्न सूत्र ५६७ . अतिरिक्त मूल्य की दर के लिये, बो श्रम के शोषण की वास्तविक मात्रा को अभिव्यक्त करती है, यह बात सच नहीं है। मिसाल के लिये, ए. लाबो के अनुमान पर विचार कीजिये, जिसके अनुसार अंग्रेज नेतिहर मजदूर को पैदावार का या उसके मूल्य का केवल भाग मिलता है, जब कि कृषि-पूंजीपति उसका भाग ले लेता है। लूट का यह माल बाद को पूंजीपति, बीवार और अन्य लोगों के बीच किस तरह बांटा जाता है, वह एक अलग सवाल है। एल• दे लावेर्गने के अनुमान के अनुसार अंग्रेज लेतिहर मजदूर के अतिरिक्त मम का उसके प्रावश्यक मम के साप ३१ का अनुपात रहता है, जिसका मतलब यह होता है कि उसके शोषण की बर ३०० प्रतिशत है। काम के दिन को परिमाण में स्थिर मानने का यह मन-पसन्द तरीका २ के सूत्रों के उपयोग के द्वारा एक जमी हुई हि बन गया है, क्योंकि इन सूत्रों में अतिरिक्त श्रम की एक निश्चित लम्बाई के काम के दिन से सवा तुलना की जाती है। जब केवल उत्पावित मूल्य पुनर्विभाजन की पोर ही ध्यान दिया जाता है, तब भी यही होता है। काम का दो दिन पहले ही एक निश्चित मूल्य में मूर्त हो चुका है, वह अनिवार्य रूप से एक निश्चित लम्बाई का ही दिन होगा। अतिरिक्त मूल्य और श्रम-शक्ति के मूल्य को उत्पादित मूल्य के अंशों के रूप में पेश करने की पावत खुब उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली से उत्पन्न हुई है, और उसका महत्व बाब को स्पष्ट होगा। यह प्रावत खास उस सौदे पर पर्दा गल देती है, जो पूंजी का विशिष्ट लक्षण होता है, अर्थात् यह भारत जीवित भम-शक्ति के साथ अस्थिर पूंजी के विनिमय पर और उसके फलस्वरूप मजदूर को पैदावार से वंचित कर देने की क्रिया पर पर्वा गल देती है। वास्तविक सम्बंध की जगह पर हम इस सम्बंध का केवल एक दिखावटी और झूम रूप देखने लगते हैं, जिसमें मजदूर और पूंजीपति पैदावार के निर्माण में दो अलग-अलग तत्व देते हैं, उनके अनुपात में वे पैरावार को प्रापस में बांट लेते हैं।' इसके अलावा, २ के सूत्रों को किसी भी समय पुनः १ के सूत्रों में बदला जा सकता है। उदाहरण के लिये, यदि हमारे पास यह अनुपात है: ६ घण्टे का अतिरिक्त श्रम १२ घण्टे का काम का दिन . पैदावार का जो भाग केवल स्थिर पूंजी की स्थान-पूर्ति करता है, उसे, बेशक, इस हिसाब से अलग रखा गया है। मि० एल० वे लावेर्गने इंगलैण्ड के अंध-प्रशंसक थे। उनमें पूंजीपति के हिस्से को बहुत फ्यादा नहीं, बल्कि बहुत कम मांकने की प्रवृत्ति पायी जाती है। 'पूंजीवादी उत्पादन के सभी सुविकसित रूप चूंकि सहकारिता के रूप होते है, इसलिए, पाहिर है, इससे अधिक प्रासान और कोई चीज नहीं है कि उनको उनके विरोधी स्वरूप से अलग कर दिया जाये और मानो मंत्र पढ़कर उनको स्वतंत्र सहयोग के किसी रूप में बदल दिया जाये, जैसा कि ए० दे लावो ने अपनी पुस्तक “De L'Esprit Association dans tous les interets de la communaute" (Paris, 1818) में किया है। अमरीकी लेखक एच. केरी तो गुलामी से पैदा होने वाले सम्बंधों के साथ भी कभी-कभी यह बाजीगरी का हाथ इसी कामयाबी के साथ विवा देते है। .