इक्कीसवां अध्याय कार्यानुसार मजदूरी जिस तरह समयानुसार मजदूरी अम-शक्ति के मूल्य अथवा नाम के एक परिवर्तित रूप के सिवा और कुछ नहीं होती, उसी तरह कार्यानुसार मजदूरी समयानुसार मजदूरी के परिवर्तित रूप के सिवा और कुछ नहीं होती। कार्यानुसार मजबूरी में पहली दृष्टि में ऐसा मालूम होता है, मानो मजदूर से जो उपयोग- मूल्य खरीदा गया है, वह उसकी मम-शक्ति का कार्य-प्रति उसका जीवित श्रम-नहीं है, बल्कि पैदावार में पहले से निहित भम है, और जैसे कि इस मम का नाम समयानुसार मजदूरी श्रम-शक्ति का दैनिक मूल्य की प्रणाली के समान नीचे लिले भिन्न एक निश्चित संख्या के घण्टों का काम का दिन के अनुसार नहीं, बल्कि उत्पादक की काम करने की क्षमता से निर्धारित होता है।' इस विनावटी रूप में जिन लोगों को विश्वास है, उनको पहला धक्का इस बात से लगना चाहिये कि उद्योग की समान शालाओं में दोनों तरह की मजदूरी साथ-साथ पायी जाती है। मिसाल के लिये, “लन्दन के कम्मोजिटर पाम तौर पर कार्यानुसार मजदूरी की प्रणाली . . "कार्यानुसार मजदूरी की प्रणाली श्रमजीवी मनुष्य के इतिहास के एक विशेष युग का द्योतक है। उसकी स्थिति पूंजीपति की इच्छा पर निर्भर रहने वाले और महज रोजनदारी पर काम करने वाले मजदूर और उस सहकारी कारीगर के बीच , जिसके अनतिदूर भविष्य में कारीगर और पूंजीपति दोनों को अपने रूप में मिलाकर एक कर देने की सम्भावना है। कार्यानुसार मजदूरी पर काम करने वाले मजदूर मालिक की पूंजी पर काम करते हुए भी वास्तव में खुद अपने atfera eta 1" (John Watts, "Trade Societies and Strikes, Machinery and Co-operative Societies" [जान वाट्स , 'व्यापार समितियां और हड़तालें, मशीनें और सहकारी समितियां'],Manchester, 1865, पृ० ५२, ५३ ।) इस नन्ही सी पुस्तिका को मैंने इसलिये उद्धृत किया है कि पूंजीवादी व्यवस्था की वकालत में दी जाने वाली जितनी प्रति-साधारण दलीलें बरसों पहले सड़ गयी है, यह पुस्तिका उन सब का मानों चहेता बच्चा है। यही मि० वाट्स इसके पहले मोवेनवाब की तिजारत किया करते थे और १८४२ में उन्होंने "Facts and Fictions of Political Economists' ('प्रर्वशास्त्रियों के तथ्य एवं कपोल-कल्पनाएं') नीर्षक से एक और पुस्तिका प्रकाशित की थी, जिसमें उन्होंने अन्य बातें कहने के अलावा यह घोषणा भी की थी कि "सम्पत्ति गकापनी है" ("property is robbery")। पर यह बहुत पुरानी
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