बाईसवां अध्याय मजदूरी के राष्ट्रगत भेद . १७ वें अध्याय में हमने अनेक प्रकार के उन योगों पर विचार किया था, जिनसे भम- शक्ति के मूल्य के परिमाण में तबदीली पा सकती है। ये तबीलियां या तो उसके निरपेक्ष परिमाण में पा सकती है और या उसके सापेक्ष परिमाणं में-अपवा अतिरिक्त मूल्य की में उसके परिमाण में-मा सकती हैं। दूसरी मोर, मन का दाम बीवन-निर्वाह के साधनों की जिस प्रमात्रा में मूर्त रूप धारण करता है, उसमें इस दाम की तबीलियों से स्वतंत्र या उससे भिन्न घटा-बढ़ी हो सकती है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, जब अम-शक्ति का मूल्य या क्रमशः उसका नाम मजदूरी के बोधगम्य रूप में परिवर्तित हो जाता है, तो इस साधारण सी बात के फलस्वरूप ये सारे नियम मजदूरी के उतार-चढ़ाव के नियमों में बदल जाते हैं। एक देश के भीतर मजदूरी के इस उतार-चढ़ाव में वो कुछ नाना प्रकार के योगों के एक क्रम के म में सामने पाता है, वह अलग-अलग देशों में राष्ट्रीय मजदूरी के समकालीन भेव के म में प्रकट हो सकता है। इसलिये अलग-अलग राष्ट्रों की मजदूरी की तुलना करते हुए, हमें उन समी तत्वों पर विचार करना चाहिये, जिनसे भम-शक्ति के मूल्य के परिमाण में होने वाले परिवर्तन निर्धारित होते हैं। उसके लिये हमें जीवन-निवाह के लिये प्रावश्यक मुख्य वस्तुओं स्वाभाविक एवं ऐतिहासिक रूप से विकसित बाम और विस्तार पर, मजदूरों की शिक्षा के बचें पर विचार करना चाहिये। यह देखना चाहिये कि स्त्रियों और बच्चों के मन की क्या भूमिका रहती है, बम की उत्पादकता का खयाल रखना चाहिये तथा उसके विस्तार तथा तीवता पर . विचार करना चाहिये। बहुत ही सतही ढंग की तुलना करने के लिये भी पहले अलग-अलग देशों में एक से पंधों की मौसत दैनिक मजदूरी को काम के समान दिन की मजबूरी में परिणत कर देना मावश्यक होता है। अब अलग-अलग देशों की दैनिक मजदूरी एक ही प्रकार के काम के दिन की मजबूरी में परिणत हो जाती है, तो फिर समयानुसार मजदूरी को पुनः कार्यानुसार मजदूरी में बदलना पड़ता है, क्योंकि केवल कार्यानुसार मजदूरी के द्वारा ही श्रम की उत्पादकता और तीव्रता दोनों की माप की जा सकती है। हर देश में श्रम की एक खास प्रोसत तीवता होती है, जिससे कम तीवता होने पर किसी भीमाल के उत्पादन में सामाजिक दृष्टि से मावश्यक समय से अधिक समय खर्च होने लगता है। 1 16 " "मजदूरी" (यहां लेखक मजदूरी की मुद्रा-अभिव्यंजना की चर्चा कर रहा है) एवज में अगर किसी सस्ती वस्तु को पहले से अधिक मात्रा मिलने लगती है, तो यह कहना सही नहीं है कि मजदूरी बढ़ गयी है।" (डेविड बुकानन , ऐडम स्मिथ की रचना "Wealth of Nations" ['राष्ट्रों का धन'] के अपने संस्करण में ; १८१४ , खण्ड १,१०४१७, नोट।) -
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