भाग ७ पूंजी का संचय . . मूल्य की वह प्रमात्रा, जो पूंजी की तरह काम करने वाली है, पहला कदम यह उठाती है कि मुद्रा की एक रूम उत्पादन के साधनों और प्रम-शक्ति में बदल देती है। यह स्पान्तरण मन्दी में, परिचलन के क्षेत्र के भीतर, होता है। दूसरा कदम-पानी उत्पादन की प्रकिया- उस बात पूरा होता है, जब उत्पादन के साधन उन मालों में बदल जाते हैं, जिनका मूल्य अपने संघटक भागों के मूल्य से अधिक होता है और इसलिये जिनमें शुरू में पेशगी लगायी गयी पूंजी और साथ ही कुछ अतिरिक्त मूल्य भी निहित होता है। उसके बाद इन मालों को परिचलन में गलना पड़ता है। उनको बेचकर उनका मूल्य मुद्रा के रूप में बदल करना पड़ता है, फिर इस मुद्रा को नये सिरे से पूंजी में बदलना पड़ता है, और वही कम फिर प्रारम्भ हो जाता है। यह वृत्ताकार गति, जिसमें बारी-बारी से एक सी अवस्थानों में से गुजरना पड़ता है, पूंजी का परिचलन कहलाती है। संचय की पहली शर्त यह है कि पूंजीपति अपना सारा माल बेचने में कामयाब हुमा हो और इस तरह उसे वो मुद्रा मिली हो, उसके अधिकांश को उसने पूंची में बदल गला हो। मागे के पृष्ठों में हम यह मानकर चलेंगे कि पूंजी का परिचलन अपने सामान्य ढंग से होता है। इस पिया का विस्तृत विशलेषण दूसरी पुस्तक में मिलेगा। यो पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है, अर्थात् को प्रत्यक रूप में मजदूरों का प्रवेतन मम पूसता है और उसे मालों में जमा देता है, वह इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रतिरिक्त मूल्य को सबसे पहले हस्तगत करता है, लेकिन इसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि पाखिर तक यह अतिरिक्त मूल्य उसी के हाथ में रहता है। अतिरिक्त मल्य में से इस पूंजीपति को अन्य पूंजीपतियों को, पीवारों प्रादि को हिस्सा देना पड़ता है, जो सामाणिक उत्पादन के संश्लेष में अन्य प्रकार के कार्यों को पूरा करते हैं। इसलिये अतिरिक्त मूल्य बहुत से भागों में बंट जाता है। ये टुकड़े अलग-अलग कोटियों के व्यक्तियों के हिस्से में पड़ते हैं और विभिन्न प्रकार के म धारण कर लेते हैं, जिनमें से प्रत्येक स दूसरे से स्वतंत्र होता है। ये म है मुनाफा, सूब, सौदागर का नका, लगान, इत्यादि। अतिरिक्त मूल्य के इन परिवर्तित मों पर केवल तीसरी पुस्तक में ही विचार करना सम्भव होगा। इसलिये, 1, एक मोर तो हम यह माने लेते है कि पूंजीपति ने वो माल तैयार किया है, उसको वह उसके मूल्य पर बेचता है और परिचालन के क्षेत्र में पूंची बो नये नये म पारण .
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६३७
दिखावट