पूंजी का संचय ६३५ . कर लेती है या इन मों के पीछे पुनरुत्पादन की जो गेस परिस्थितियां छिपी रहती है, उनकी तरफ हम कोई ध्यान नहीं देते। दूसरी ओर, हम पूंजीवादी उत्पादक को पूरे अतिरिक्त मूल्य का मालिक मानकर चलते हैं, या शायद यह कहना बेहतर होगा कि उसके साथ और जितने लोग लूट में हिस्सा बंटाते हैं, हम उसे उन सबका प्रतिनिधि मान लेते हैं। प्रतएव, सबसे पहले हम संचय पर एक अमूर्त दृष्टिकोण से, अर्थात् उसे उत्पादन की वास्तविक क्रिया की एक विशेष अवस्था मात्र समझकर उसपर विचार करते हैं। जहां तक संचय होता है, वहां तक यह मावश्यक है कि पूंजीपति ने अपना माल बेच दिया हो और उसकी बिक्री से जो मुद्रा प्राप्त होती है, उसे पूंजी में बदल गलाहो। इसके अलावा, अतिरिक्त मूल्य के अनेक टुकड़ों में बंट जाने से न तो उसके स्वरूप में कोई परिवर्तन पाता है और न ही वे परिस्थितियां, जिनमें अतिरिक्त मूल्य संचय का एक तत्व बन जाता है, बदल जाती हैं। प्रायोगिक पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य के जिस भाग को अपने पास रख लेता है या जिसको दूसरों को दे देता है, उसका अनुपात कुछ भी हो, अतिरिक्त मूल्य पर सबसे पहले वही अधिकार करता है। इसलिये, बो कुछ सचमुच होता है, हम उसके सिवा और कुछ मानकर नहीं चल रहे हैं। दूसरी ओर, संचय की पिया के सरल एवं मौलिक रूम पर परिचलन की घटना से, जिसका संचय फल होता है, और अतिरिक्त मूल्य के बंट जाने से एक पर्वा सा पड़ जाता है। इसलिये इस क्रिया का ठीक-ठीक विश्लेषण करने के लिये पावश्यक है कि हम कुछ समय के लिये उन तमाम घटनामों को अनदेखा कर दें, जिनसे इस क्रिया के प्रान्तरिक यंत्र की कार्यविधि पर प्रावरण पड़ जाता है। .
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