साधारण पुनरुत्पादन ६३७ उसके बाद पाने वाले वर्षों में भी उसको बार-बार यही किया बोहरानी पड़ेगी। अतिरिक्त मूल्य पेशगी लगायी गयी पूंजी की नियतकालिक वृद्धि की शकल में, अथवा कियारत पूंजी के नियतकालिक फल की शकल में, पूंजी से उत्पन्न होने वाली प्राय का रूप धारण कर लेता है। यदि यह प्राय केवल पूंजीपति के उपभोग की वस्तुएं मुहैया करने केही काम में पाती है और जिस तरह वह एक नियत अवधि में पैदा होती है, यदि उसी तरह एक नियत अवषि. के भीतर खर्च कर दी जाती है, तो अन्य बातों के ज्यों की त्यों रहते हुए यह साधारण पुनरुत्पादन होता है। और यद्यपि इस प्रकार का पुनरुत्पादन पुराने पैमाने की उत्पादन की क्रिया की एक पुनरावृत्ति मात्र होती है, तथापि महब यह पुनरावृत्ति प्रववा निरन्तरता ही उत्पादन की क्रिया को एक नया स्वरूप दे देती है। या शायद यह कहना बेहतर होगा कि एक अलग- बलग, विरल क्रिया के रूप में उत्पादन की प्रक्रिया में जो कुछ दृष्ट विशेषताएं होती है, इस पुनरावृत्ति प्रथवा निरन्तरता के कारण गायब हो जाती हैं। 1 "Mais ces riches, qui consomment les produits du travail des autres, ne peuvent les obtenir que par des échanges. S'ils donnent- cependant leur richesse acquise et accumuléc en retour contre ces produits nouveaux qui sont l'objet de leur fantaisie, ils semblent exposés à épuiser bien- tôt leur fonds de réserve; ils ne travaillent point, avons-nous dit, et ils ne peuvent même travailler; on croirait donc que chaque jour doit voir diminuer leurs vieilles richesses, et que lorsqu'il ne leur en restera plus, rien ne sera of- fert en échange aux ouvriers qui travaillent exclusivement pour eux... Mais dans l'ordre social, la richesse a acquis la propriété de se reproduire par le tra- vail d'autrui, et sans que son propriétaire y concoure. La richesse, comme le travail, et par le travail, donne un fruit annuel qui peut être détruit chaque année sans que le riche en devienne plus pauvre. Ce fruit est le revenu qui nait du capital." ["लेकिन ये धनी लोग, जो दूसरों के श्रम से उत्पादित वस्तुओं को खर्च करते हैं, विनिमय (मालों की खरीद) के सिवा और किसी तरह इन वस्तुओं को नहीं प्राप्त कर सकते। किन्तु , यदि वे अपनी पसन्द की इन नयी वस्तुओं के एवज में अपना पहले से कमा कर इकट्ठा किया हुमा धन देने लगते हैं, तो उनके सुरक्षित कोष के तेजी से ख़तम हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। यह मैं कह चुका हूं कि ये लोग खुद काम नहीं करते और यहां तक कि वे काम करने की योग्यता भी नहीं रखते। इसलिये ख़याल हो सकता है कि उनके धन का कोष धीरे-धीरे खाली होता जायेगा, और जब उसमें कुछ भी नहीं रहेगा, तब उनके पास ऐसी कोई चीज नहीं बचेगी, जिसको देकर वे मजदूरों को खास तौर पर केवल अपने लिये काम करने को तैयार कर सकें ... लेकिन हमारी समाज-व्यवस्था में धन में दूसरों के श्रम की सहायता से अपना पुनरुत्पादन करने का गुण पैदा हो गया है, और इस श्रम में, धन के मालिक को कोई हिस्सा नहीं लेना पड़ता। श्रम की भांति और श्रम की सहायता से धन में भी हर साल फल लगता है, जिसे हर साल नष्ट कर देने पर भी धन के मालिक का कोई नुकसान नहीं होता। पूंजी से जो प्राय उत्पन्न होती है. वही यह फल है"।] (Sismondi, “Nouv. Princ. D'Econ. Pol.", Paris, 1819, arus 9, 90 59-591)
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