पूंजीवादी उत्पादन एक निश्चित अवधि के लिये मम-शक्ति का खरीदा जाना उत्पादन की प्रक्रिया की भूमिका होता है, और वह निश्चित अवधि बब-बब पूरी हो जाती है, यानी बब-बब उत्पावन का निश्चित काल, से एक सप्ताह या एक महीना, समाप्त हो जाता है, तब-तब यह भूमिका फिर से बोहरायी जाती है। लेकिन मजदूर को उस बात तक उबरत नहीं मिलती, जब तक कि वह अपनी श्रम-शक्ति को सर्च नहीं कर देता और उसके मूल्य को ही नहीं, बल्कि अतिरिक्त मूल्य को भी मालों का मूर्त रूप नहीं है बेता। इस तरह वह केवल अतिरिक्त मूल्य ही नहीं पैदा करता, जिसको हमने फिलहाल पूंजीपति के निजी उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा करनेवाला कोष मान रखा है, बल्कि अस्थिर पूंजी नाम का वह कोष भी पहले ही से पैदा कर देता है, जिसमें से खुद उसकी उपरत पाती है और जो बाद को मजदूरी की शकल में उसके पास लौट पाता है, और उससे केवल उसी समय तक काम लिया जाता है, जब तक कि वह इस कोष का पुनरुत्पादन करता रहता है। इसी से प्रर्वशास्त्रियों का वह सूत्र निकला है, जिसका हमने मगरहवें अध्याय में विक किया था और जिसमें मजदूरी को खुद पैदावार के एक हिस्से के रूप में पेश किया गया है। मजदूरी की शकल में मजदूर के पास जो बीच फिर लौट पाती है, वह उस पैदावार का एक हिस्सा है, जिसका वह लगातार पुनदत्पादन करता रहता है। यह सच है कि पूंजीपति उसे मुद्रा की शकल में उजरत देता है, परन्तु यह मुद्रा केवल मनबूर के मम की पैदावार का परिवर्तित रूप ही होती है। जिस समय वह उत्पादन के साधनों के एक हिस्से को पैदावार में परिवर्तित करता है, उसी दौरान में उसकी पहले की पैदावार का एक भाग मुद्रा में परिवर्तित कर दिया जाता है। मजदूर की इस सप्ताह या इस वर्ष की अम-शक्ति की कीमत उसके पिछले सप्ताह या पिछले वर्ष के श्रम के द्वारा प्रदा की जाती है। यदि हम एक अकेले पूंजीपति और एक अकेले मजदूर के बजाय पूंजीपतियों के पूरे वर्ग और मजदूरों के पूरे वर्ग को लें, तो मुद्रा के हस्तक्षेप से पैदा होनेवाला आम तत्काल गायब हो जाता है। पूंजीपति-वर्ग मजदूर वर्ग को मुद्रा के रूप में लगातार कुछ ऐसे मार-नोट देता रहता है, जिनके बरिये मजदूरवर्ग अपने द्वारा तैयार किये गये उन मालों का एक हिस्सा हासिल कर सकता है, जिनको पूंजीपति वर्ग ने हस्तगत कर रखा है। मजदूर उसी ढंग से इन मार-नोटों को लगातार पूंजीपति वर्ग को लौटाते रहते हैं, और इस तरह उनको पुर अपनी पैदावार का वह भाग मिल जाता है, जो उनके हिस्से में पाया है। इस पूरे लेन-देन पर पैदावार के माल-कप और माल के मुद्रा-म का प्रावरण पड़ा रहता है। प्रतः अस्थिर पूंची केवल उस कोष की अभिव्यक्ति का एक विशिष्ट ऐतिहासिक म है, जिसमें से मजदूरों को जीवन के लिये प्रावश्यक वस्तुएं दी पाती हैं। या यूं कहिये कि इस विशिष्ट ऐतिहासिक रूप में वह भम-कोष प्रकट होता है, जिसकी मजबूर को अपना तथा अपने परिवार का बीवन-निर्वाह करने के लिये मावश्यकता होती है और जिसका, सामाविक उत्पादन की प्रणाली कुछ भी हो, उसको बुर ही उत्पादन और पुनरुत्पावन करना पड़ता है। यदि यह मम-कोष बराबर उस मुद्रा के रूप में उसके पास लोटता रहता है, जिसके द्वारा मजूर के . . . 1 16 'मुनाफ़ों की तरह मजदूरी को भी असल में तैयार पैदावार का ही एक हिस्सा समझना चाहिये।" (Ramsay, उप० पु०, पृ० १४२१) “पैदावार का वह हिस्सा, जो मजदूरी की शकल में मजदूर को मिलता है।" (J. Mill, "Elements, &c." [जेम्स मिल, 'पर्यशास्त के तत्व'], Parissot द्वारा फ्रांसीसी अनुवाद, Paris, 1823, पृ० ३४।)
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