६४० पूजावादा उत्पादन . . सिरे से शुरू हो जाने वाली एक निरन्तर प्रक्रिया के म में विचार करते हैं। लेकिन इस प्रक्रिया का कहीं पर और कभी श्रीगणेश भी तो हुमा होगा। इसलिये हमारे वर्तमान दृष्टिकोण से तो यह अधिक सम्भव प्रतीत होता है कि कभी पूंजीपति के पास दूसरों के प्रवेतन श्रम के बिना ही किसी प्रकार मुद्रा का संचय हो गया होगा और इसी तरह उसमें मन-वाक्ति के खरीवार के रूप में मण्डी में प्रवेश करने की सामयं पैदा हुई होगी। यह जैसे भी हुमा हो, इस क्रिया की केवल निरन्तरता हो, अर्थात् केवल साधारण पुनरुत्पावन ही कुछ और बड़े चमत्कारपूर्ण परिवर्तन पैदा कर देता है, जिनका न केवल अस्थिर पूंची पर, बल्कि कुल पूंजी पर भी प्रभाव पड़ता है। यदि १,००० पौण्ड की पूंजी से हर साल २०० पौड का अतिरिक्त मूल्य पैदा होता हो और यदि यह अतिरिक्त मूल्य हर साल सर्च कर दिया जाता हो, तो यह बात साफ़ है कि ५ वर्ष में जो अतिरिक्त मूल्य सचं होगा, वह ५४ २०० पौड या १,००० पौड के बराबर होगा। यानी वह उस रकम के बराबर होगा, बो शुरू में पेशगी लगायी गयी थी। यदि अतिरिक्त मूल्य का केवल एक भाग,-मान लीजिये, केवल भाषा भाग,-खर्च होता है, तो यही बात १० वर्ष में होगी, क्योंकि १०x१०० पौन-१,००० पौड। इससे यह सामान्य नियम निकलता है कि अगर शुरू में लगायी गयी पूंची को हर साल खर्च कर दिये जाने वाले अतिरिक्त मूल्य से भाग दिया जाये, तो हमें पुननत्पादन की अवषि मालूम हो जाती है, यानी हमें यह पता लग जाता है कि पूंजीपति अपनी शुरू में लगायी हुई पूंजी को कितने वर्षों में खर्च कर गलता है, या कितनी अवधि के पूरा हो जाने पर शुरू में लगायी गयी पूंजी ग्रायव हो जाती है। पूंजीपति समानता है कि वह दूसरों के प्रवेतन श्रम की पैदावार को-प्रति अतिरिक्त मूल्य को-खर्च कर रहा है और अपनी मूल पूंजी उसने ज्यों की त्यों बचा रती है। लेकिन वह जो कुछ समझता है, उससे तयों में परिवर्तन नहीं पा सकता। एक निश्चित अवधि बीत जाने के बाद उसके पास जो पूंजीगत मूल्य होता है, वह उस अतिरिक्त मूल्य के बोड़ के बराबर होता है, जो उसने इन वर्षों में हस्तगत किया है, और इस अवधि में वह को मूल्य सर्च कर गलता है, वह उसकी मूल पूंजी के बराबर होता है। यह सच है कि तब उसके पास दो पूंजी होती है, उसका परिमाण पहले जितना ही होता है, और उसका एक भाग, जैसे मकान, मशीने प्रावि उस वक्त भी मौजून ये, पब उसने अपना व्यवसाय प्रारम्भ किया पा। लेकिन यहां हमारा सम्बंध इस पूंजी के भौतिक तत्वों से नहीं, बल्कि उसके मूल्य से है। जब कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति के मूल्य के बराबर उधार लेकर अपनी सारी सम्पत्ति का सफाया कर गलता है, तब यह बात स्पष्ट होती है कि उसकी सम्पत्ति उसके कर्व की कुल रकम के सिवा और किसी चीज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। पूंजीपति पर भी यही बात लागू होती है। अब वह अपनी मूल पूंजी का सम-मूल्य सर्च कर गलता है, तब उसकी बची हुई पूंजी का मूल्य उस प्रतिरिक्त मूल्य की कुल राशि के सिवा और किसी चीज का प्रतिनिधित्व नहीं करता, जिसे उसने बिना उजरत दिये हुए हस्तगत कर लिया था। तब उसकी पुरानी पूंजी के मूल्य का एक कण भी बाली नहीं रहता। इसलिये, किसी भी प्रकार के संचय से अलग, उत्पादन की प्रक्रिया की केवल तरता ही,-दूसरे शब्दों में, केवल साधारण पुनरुत्पादन ही कभी न कमी प्रत्येक पूंजी को अनिवार्य रूप से संचित पूंची अथवा पूंजीकृत प्रतिरिक्त मूल्य में बदल देता है। यदि पूंजी शुरू में मालिक के व्यक्तिगत श्रम से कमायी गयी हो, तब भी वह मान नहीं, तो कल ऐसा मूल्य बन जाती .
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