६४८ पूंजीवादी उत्पादन . . मागे वह यह कहते हैं कि इन मशीनों का सर्वचा अपनी सम्पत्ति के रूप में उपयोग करने का उनका कोई इरादा नहीं है। हमें यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि हम इसे न तो उपयुक्त पोर न सम्भव ही समझते हैं कि मानव-मशीनों को अच्छी हालत में रखा जाये,-पानी जब तक कि उनकी फिर बहरत नहीं होती, तब तक के लिये उनको तेल-बेल लगाकर कहीं बन्द कर दिया जाये। मानव-मशीनें यदि निष्क्रिय रहती हैं, तो उनमें पाप चाहे जितना तेल लगायें और उनको चाहे जितना घिसे-माने, ये मोरचा बकर लायेंगी। इसके अलावा, जैसा कि हम अभी देख चुके है, मानव-मशीनों में अपने पाप भाप भर जायेगी और फिर वे या तो फट पड़ेंगी या हमारे बड़े-बड़े शहरों में पागल होकर मार-पीट करने लगेंगी। जैसा कि मि० पोटर का कहना है, मजदूरों के पुनरुत्पादन में कुछ समय लग सकता है, लेकिन जब मशीनों पर काम करने वाले निपुण कारीगर और पूंजीपति दोनों हमारे देश में मौजूद हैं, तो हमें लगन से काम करने वाले परिममी और उद्योगी व्यक्ति हमेशा मिल सकते हैं, जिनमें से हम इतनी बड़ी संख्या में निपुण मजदूर तैयार कर सकते हैं, जिसकी हमें कमी पावश्यकता नहीं होगी। मि० पोटर का कहना है कि एक साल में, दो साल में या, हो सकता है, तीन साल में व्यवसाय में नयी जान पड़ जायेगी, और इसलिये वह हमसे चाहते हैं कि कार्यकारी शक्ति को विदेशों को चले जाने के लिये प्रोत्साहन या अनुमति (1) न दी जाये। उनका कहना है कि यह बहुत स्वाभाविक बात है कि मजदूर विदेशों को जाना चाहते हैं। परन्तु मि० पोटर की राय है कि इन लोगों की इच्छा के बावजूद राष्ट्र को चाहिये कि इन पांच लाख मजदूरों को, उनके ७ लास प्राधितों समेत , सूती व्यवसाय वाले डिस्ट्रिक्टों में बन्द करके रखे। और इसके लाजिमी नतीजे के तौर पर मि० पोटर की, खाहिर है, यह भी राय है कि इन लोगों के प्रसन्तोष को राष्ट्र को बलपूर्वक दबा देना चाहिये और उनको भील के चरिये और इस उम्मीद के सहारे बिन्दा रखना चाहिये कि हो सकता है कि किसी दिन सूती मिलों के मालिकों को उनकी जरूरत हो... अब इन द्वीपों के महान जनमत के मैदान में उतरने का और इस "कार्यकारी शक्ति" को उन लोगों से रक्षा करने का समय मा गया है, जो उसके साथ लोहे, कोयले और कपास के समान व्यवहार FICHT weet " ("to save this "working power" from those who would deal with it as they would deal with iron, and coal, and cotton"). "The Times" का लेख केवल अपनी चतुराई (jeu desprit) दिखाने के लिये लिखा गया था। "महान जनमत" भी असल में मि० पोटर के ही मत का था। वह भी यही सोचता था कि फेक्टरी मजदूर फेक्टरी के प्रस्थावर उपकरणों का ही एक भाग होते हैं। चुनांचे, मजदूरों के परावास पर रोक लगा दी गयी।' उनको उस "नैतिक मुहताजखाने" में, सूती . "The Times", २४ मार्च १८६३ । 'संसद ने परावास की सहायता के लिये एक पाई भी बर्च करने की इजाजत नहीं दी, बल्कि कुछ ऐसे कानून पास कर दिये, जिनमें नगरपालिकामों को मजदूरों को प्रधभूखी हालत में रखने-यानी साधारण मजदूरी से भी कम देकर उनका शोषण करने का अधिकार दे दिया गया था। दूसरी पोर, इसके ३ वर्ष बाद जब पशुओं में बड़े पैमाने पर बीमारी फैली, तो संसद ने अपनी सारी रूढ़ियों को यकायक तोड़कर फेंक दिया और करोड़पति जमींदारों की क्षति-पूर्ति करने के लिये बट से करोड़ों की रकम खर्च करने की इजाजत दे दी, हालांकि मांस का भाव बढ़ जाने के कारण इन जमींदारों के काश्तकारों का तो बिलकुल कोई नुकसान नहीं हुमा। १८६६ में संसद का अधिवेशन प्रारम्भ होने के समय इन भू-स्वामियों ने बैलों की भांति जिस तरह डकराना शुरू कर दिया था, उससे प्रकट होता था कि प्रादमी हिन्दू न होने पर भी 'सबला' गऊ माता की पूजा कर सकता है और जुपिटर न होते हुए भी कभी-कभी बैल बन सकता है।
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