साधारण पुनरुत्पादन ६४६ 1 व्यवसाय वाले डिस्ट्रिक्टों में, बन्द कर दिया गया; और आज वे पहले की तरह ही लंकाशायर के सूती मिलों के मालिकों को "शक्ति" (the strength) बने हुए हैं। इसलिये, पूंजीवावी उत्पादन खुब ही श्रम-शक्ति और श्रम के साधनों के बीच पाये जाने वाले अलगाव को पुनः पैदा कर देता है। इस तरह वह मजदूर के शोषण के लिये प्रावश्यक परिस्थितियों का पुनरुत्पादन करता रहता है और उनको स्थायी बना देता है। वह सदा मजदूर को इसके लिये मजबूर करता है कि यदि वह जिन्दा रहना चाहता है, तो अपनी भम-शक्ति बेचे; उपर पूंजीपति को वह यह अवसर देता है कि श्रम-शक्ति को खरीदकर वह अपना धन बढ़ाये। प्रब मण्डी में पूंजीपति और मजदूर का प्राहक और विक्रेता के रूप में एक दूसरे के मुकाबले में खड़ा होना कोई संयोग की बात नहीं रह जाती। खुद उत्पादन की क्रिया ही मजदूर को बार-बार श्रम-शक्ति के विक्रेता के रूप में मण्डी में मोंकती जाती है और उसकी पैदावार को एक ऐसे सावन में बदलती जाती है, जिसके बरिये कोई और मादमी मजदूर को खरीद सकता है। वास्तव में तो मजदूर पूंजी के हाथ अपने को बेचने के पहले से ही पूंजी की सम्पत्ति होता है। उसको समय-समय पर जिस तरह अपने पाप को बेचना पड़ता है, जिस तरह अपने मालिकों को बदलना पड़ता है और श्रम-शक्ति के बाजार-भाव में जिस तरह के उतार-चढ़ाव पाते रहते हैं,-ये सारी बातें मजबूर की प्रार्षिक दासता के कारणों का भी काम करती है और उसके प्रावरणका भी। - 3 । 1“L'ouvrier demandait de la subsistence pour vivre, le chef demandait du travail pour gagner" [" मजदूर रोटी-कपड़ा चाहता है, ताकि जिन्दा रह सके; मालिक श्रम चाहता है, ताकि मुनाफा कमा सके "]। ( Sismondi, उप० पु०, पृ०६१।) "इस दासता का एक बर्बर ढंग से भद्दा रूप डरहम नामक काउण्टी में देखने को मिलता है। यह उन चन्द काउंटियों में से है, जिनमें ऐसी परिस्थितियां पायी जाती हैं, जिनके फलस्वरूप काश्तकार को खेतिहर मजदूर पर स्वामित्व का अधिकार निर्विवाद रूप में नहीं मिला हुआ है। खानों के उद्योग के कारण काश्तकारों के लिये काम करना या न करना कुछ हद तक खेतिहर मजदूरों की इच्छा पर निर्भर करता है। अन्य स्थानों में जो प्रथा पायी जाती है, उसके विपरीत इस काउण्टी के काश्तकार केवल ऐसे फार्म लगान पर लेते हैं, जिन जमीन पर मजदूरों की झोंपड़ियां भी बनी होती हैं । झोंपड़ी का किराया मजदूरी का हिस्सा होता है। ये झोंपड़ियां "hind's houses" ("खेत-मजदूरों के घर") कहलाती हैं। वे कुछ सामन्ती ढंग की हरी-बेगार के एवज में मजदूरों को किराये पर उठा दी जाती हैं । मजदूर और काश्तकार के बीच एक करार हो जाता है, जो "bondage" ("बंधक") कहलाता है। इसमें अन्य बातों के अलावा यह शर्त भी होती है कि जिन दिनों मजदूर कहीं और नौकरी करने जायेगा, उन दिनों वह अपने स्थान पर किसी और को, जैसे अपनी बेटी को, छोड़ जायेगा। मजदूर खुद "bondsman" ("क्रीतदास") कहलाता है। यहां जिस प्रकार का सम्बंध स्थापित होता है, उससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि मजदूर द्वारा किया जाने वाला व्यक्तिगत उपभोग किस प्रकार एक बिल्कुल नये दृष्टिकोण से पूंजी के हित में किया गया उपभोग, अर्थात् उत्पादक उपभोग , बन जाता है। "यह बात देखने में बहुत अजीब लगती है कि नौकर और क्रीतदास का पालाना तक उसके सामन्त के काम में प्राता है, जो सब चीजों का पहले से ही हिसाब लगा लेता है और सामन्त अपने शौचगृह के अलावा पास- पास में कोई और शौचगृह नहीं बनने देता। वह अपने जमींदाराना हक़ों में जरा भी कमी करने के मुकाबले में यह ज्यादा पसन्द करता है कि किसी के बगीचे के लिये थोड़ी-बहुत खाद अपने पास से दे दे।" ("Public Health, Report VII, 1864." ['सार्वजनिक स्वास्थ्य की७ वीं रिपोर्ट, १८६४'], पृ० १८८।) 'पाठक यह नहीं भूले होंगे कि जहां बच्चों मादि से काम कराने का सवाल होता है, वहां अपना श्रम अपनी मर्जी से बेचने की रस्म पूरी करने की भी जरूरत नहीं रहती। 1 .
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