चौबीसवां अध्याय अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण अनुभाग १- उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने का पूंजीवादी उत्पादन । मालों के उत्पादन के सम्पत्ति सम्बंधी नियमों का पूंजीवादी हस्तगतकरण के नियमों में बदल जाना . Yo ,००० पास अभी तक हम इसकी छानबीन करते पाये हैं कि पूंजी से अतिरिक्त मूल्य कैसे उत्पन्न होता है। अब हमें यह देखना है कि अतिरिक्त मूल्य से पूंजी कैसे पैदा होती है। अतिरिक्त मूल्य को पूंनी के रूप में इस्तेमाल करना, उसे पुनः पूंजी में बदल देना, पूंजी का संचय कहलाता है। पाइये, पहले हम किसी एक पूंजीपति के दृष्टिकोण से इस क्रिया पर विचार करें। मान लीजिये कि सत की कताई का व्यवसाय करने वाले किसी पूंजीपति ने १०,००० पौण की पूंजी लगा रखी है। उसके पांच में से चार हिस्से (८,००० पौण) कपास, मशीनों प्रादि पर और एक हिस्सा (२,००० पौड) मजदूरी पर खर्च हुए हैं। मान लीजिये , वह साल भर में २,४०,००० पौड सूत तैयार करता है, जिसका मूल्य १२,००० पौण के बराबर होता है। अतिरिक्त मूल्य की दर चूंकि १०० प्रतिशत है, इसलिये जो अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, वह सूत को अतिरिक्त अथवा शुद्ध पैदावार में-यानी कुल पैदावार के छठे भाग में निहित होता है, जिसका मूल्य २,००० पौण होता है, जो सत को बेचकर प्राप्त होगा। प्रब २,००० पौण तो २,००० पौण होते हैं। मुद्रा की इस काम में अतिरिक्त मूल्य का न तो कोई चिन्ह दिखाई बेता है और न ही उसकी परा भी माती है। जब हमें यह मालूम होता है कि अमुक मूल्य प्रतिरिक्त मूल्य है, तब हम यह भी मान जाते हैं कि यह अतिरिक्त मूल्य उसके स्वामी को कैसे प्राप्त हुमा पा, लेकिन उससे न तो मूल्य के और न मुद्रा के स्वरूप में कोई परिवर्तन होता है। यदि तमाम परिस्थितियां पहले जैसी रहती है, तो २,००० पौण की इस प्रतिरिक्त स्म को पूंजी में बदलने के लिये सूत की कताई का व्यवसाय करने वाला पूंजीपति उसके पांच में से चार हिस्से (१,६०० पोज) कपास प्रादि खरीदने पर सर्च करेगा और एक हिस्सा (४०० पौड) अतिरिक्त मजदूरों को खरीदने में लगायेगा, जिनको मन्दी में जीवन के लिये प्रावश्यक वस्तुएं 1 - , 1"पूंजी का संचय-पाय के एक भाग का पूंजी की तरह इस्तेमाल किया जाना।" Malthus, "Definitions, &c." [माल्यूस , 'परिभाषाएं, प्रादि'], Cazenove का संस्करण, पृ० ११] " प्राय का पूंजी में बदल दिया जाना।" (Malthus, “Princ. of Pol. Econ." [मास्यूस, 'प्रर्षशास्त्र के सिद्धान्त'], दूसरा संस्करण, London, 1836, पृ.० ३२० । ) .
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