अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण 1 उसके अलावा वार्षिक प्रतिरिक्त श्रम का एक भाग उत्पादन तथा जीवन-निर्वाह के साधनों की 'एक अतिरिक्त मात्रा के उत्पादन पर खर्च किया गया होगा। संक्षेप में यूं कहिये कि यदि अतिरिक्त मूल्य को पूंजी में बदला जा सकता है, तो इसका एक मात्र कारण यह है कि जिस अतिरिक्त पैदावार का यह मूल्य होता है, उसमें पहले से ही नयी पूंजी के भौतिक तत्व मौजूब होते हैं। अब इन तत्वों को यदि सचमुच पूंजी की तरह काम करना है, तो पूंजीपति वर्ग के पास अतिरिक्त श्रम होना चाहिये। यदि पहले से काम में लगे हुए मजदूरों के शोषण का विस्तार अथवा तीव्रता नहीं बढ़ती, तो अतिरिक्त श्रम-शक्ति का पता लगाना पावश्यक होता है। पूंजीवादी उत्पादन के यंत्र में इसके लिये पहले से ही व्यवस्था कर दी गयी है, क्योंकि उसमें मजदूर-वर्ग को मजदूरी पर निर्भर करने वाले एक ऐसे वर्ग में परिणत कर दिया गया है, जिसको साधारण मजदूरी न केवल उसके जीवन-निर्वाह के लिये, बल्कि इस वर्ग की वृद्धि के लिये भी पर्याप्त होती है। मजदूर-वर्ग हर वर्ष अलग-अलग प्रायु के मजदूरों की शकल में इस अतिरिक्त श्रम-शक्ति को तैयार कर देता है। पूंजी को बस इतना ही करना होता है कि इस अतिरिक्त श्रम-शक्ति का वार्षिक पैदावार में शामिल उत्पादन के साधनों के साथ समावेश कर दे, और ऐसा करते ही अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण सम्पन्न हो जाता है। यदि गेस दृष्टिकोण से देखा जाये, तो संचय का पर्व यह होता है कि उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने पर पूंजी का पुनरुत्पादन हो। साधारण उत्पादन जिस वृत्त में घुमता है, उसका रूप बदल जाता है, और यदि सिस्मोंवी के लिये हुए नाम का प्रयोग किया जाये, तो वह एक कुन्तल में बदल जाता है।' पाइये, अब हम अपने उदाहरण की भोर लौट चलें। वह बिल्कुल उस पुरानी कहानी की तरह है कि इब्राहीम के इसहाक नामक पुत्र उत्पन्न हुमा, इसहाक के याकूब नामक पुत्र, और यह वंश-परम्परा इसी तरह बढ़ती गयी। मूल पूंजी १०,००० पौड की थी; उससे २,००० पौण का अतिरिक्त मूल्य पैदा हुमा। उसका पूंजीकरण हो जाता है। २,००० पौण की नयी पूंजी से ४०० पोम का प्रतिरिक्त मूल्प उत्पन्न होता है, और उसका भी पूंजीकरण हो जाता है और वह एक नयी अतिरिक्त पूंजी में बदल दिया जाता है। फिर उसकी बारी माती है, और उससे ८० पौड का नया अतिरिक्त मूल्य उत्पन्न हो जाता है। और इसी तरह यह क्रम चलता रहता है। हम यहां पर निर्यात व्यापार की भोर कोई ध्यान नहीं देते , जिसके द्वारा कोई भी राष्ट्र विलास की वस्तुओं को या तो उत्पादन के साधनों में) और या जीवन-निर्वाह के साधनों में बदल सकता है और इसकी उल्टी बात भी कर सकता है। हम जिस विषय की छान-बीन कर रहे हैं, उसका उसकी समग्रता में तथा समस्त विघ्नकारी गौण परिस्थितियों से अलग करके अध्ययन करने के लिये हमें पूरी दुनिया को एक राष्ट्र समझना और यह मानकर चलना चाहिये कि हर जगह पूंजीवादी उत्पादन कायम हो गया है और उसने उद्योग की प्रत्येक शाखा पर अधिकार कर लिया है। 'सिस्मोंदी ने संचय का जो विश्लेषण किया है, उसमें एक बड़ा दोष यह है कि वह बहुधा केवल "पाय का पूंजी में रूपान्तरण" शब्दों का प्रयोग करके ही संतोष कर लेते है और इस क्रिया की भौतिक परिस्थितियों की तह में नहीं जाते।
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