अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण ६७१ . . प्राय साधारण मानवता का तकाजा है कि पूंजीपति को इस शहादत से और इस प्रलोभन से मुक्ति दिला दी जाये, जिस प्रकार हाल में दास प्रथा का अन्त करके ज्योर्षिया के वासों के मालिक को इस दुविधा से छुटकारा दिला दिया गया कि अपने हशियों को कोड़े मार-मार वह जो अतिरिक्त पैदावार तैयार कराता है, उसे फिजूलखर्ची के बरिये लुटा रे या उसके एक हिस्से को पुनः नये हाियों और नयी समीन में परिणत कर गले। समाज के अत्यन्त भिन्न प्रकार के प्रार्षिक स्मों में केवल साधारण पुनवत्पावन ही नहीं, बल्कि अलग-अलग मात्रा में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने पर पुनरुत्पादन होता है। हर बार पहले से अधिक उत्पादन और अधिक उपभोग होता है और इसलिये हर बार पहले से अधिक पैदावार को उत्पादन के साधनों में बदलना पड़ता है। किन्तु जब तक मजदूर के उत्पादन के साधन प्रार उनके साथ-साथ उसकी पैदावार तथा बीवन-निर्वाह के साधन पूंजी की शकल में उसके मुकाबले में नहीं खड़े हो जाते, तब तक यह क्रिया पूंजी के संचय के रूप में या किसी पूंजीपति के कार्य के रूप में सामने नहीं पाती। रिचर्ड बोन्स ने, जिनकी कुछ वर्ष पहले ही मृत्यू हुई है और जिन्होंने हेलीवरी कालिज में माल्यूस के उत्तराधिकारी के रूम में प्रशास्त्र के प्राचार्य का पद ग्रहण किया था, दो महत्वपूर्ण तयों के प्रकाश में इस विषय का अच्छा विवेचन किया है। भारत की भावादी का अधिकांश चूंकि किसानों का है, वो खुद अपनी खमीन जोतते-बोते है, इसलिये उनकी पैदावार, उनके मम के प्राचार और जीवन-निर्वाह के साधन कभी " में से बचाये हुए ("saved from revenue") किसी ऐसे कोष का रूप (“the shape") पारण नहीं करते, जो इस कारण पहले से संचय की किसी किया ("a previous process of accumulation") में से गुखर पुका हो।" दूसरी मोर, उन प्रान्तों में, जहां अंग्रेवी शासन ने पुरानी व्यवस्था को सबसे कम गड़बड़ किया है, खेती के सिवा कोई और काम करने वाले मजबूर प्रत्यक्ष रूप में ऐसे रईसों के यहां नौकर हैं, जिनको खेती की अतिरिक्त पैदावार का एक भाग खिराज या लगान के रूप में मिलता है। इस पैदावार का एक भाग ये रईस जिन्स की शाकल में खर्च कर जाते हैं, दूसरा भाग उनके उपयोग के वास्ते मखदूरों द्वारा विलास की वस्तुओं तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं में बदल दिया जाता है, बाकी भाग मजदूरों की मजदूरी का काम करता है, जो अपने मम के प्रोबारों के खुब मालिक होते हैं। यहां उत्पादन पौर उत्तरोतर बढ़ते हुए पैमाने पर पुनवत्पादन बराबर होता चलता है, लेकिन उसके लिये उस विचित्र सन्त के, जुब्ध मुलाकृति वाले उस सूरमा सरवार के, उस "परिवानक" पूंजीपति के हस्तक्षेप की कमी पावश्यकता नहीं पड़ती। 1" राष्ट्रीय पूंजी की प्रगति में प्राय के जिन विशिष्ट प्रवर्गों से सबसे अधिक सहायता मिलती है, वे अपनी प्रगति की भिन्न-भिन्न अवस्थामों में बदलते रहते हैं और इसलिये इस प्रगति की दृष्टि से भिन्न-भिन्न स्थिति रखने वाले राष्ट्रों में इस प्रकार के प्राय के प्रवर्ग बिल्कुल अलग-अलग होते है.. समाज की प्रारम्भिक अवस्थानों में मजदूरी पौर लगान की तुलना में... मुनाफ़ा . संचय का एक महत्वहीन स्रोत होता है... जब राष्ट्रीय उद्योग की शक्तियों का सचमुच बहुत काफी विकास हो जाता है, तब कहीं मुनाफ़ा संचय के एक स्रोत के रूप में तुलनात्मक महत्व 91T AMI" (Richard Jones, "Textbook of Lectures on the Political Economy of Nations' [रिचर्ड जोन्स, 'राष्ट्रों के अर्थशास्त्र पर भाषणों की पाठ्य-पुस्तक'], पृ. १६, २१). 'उप० पु०, पृ० ३६ और उसके भागे के पृष्ठ । . .
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