पूंजीवादी उत्पादन को स्वीकार करके चल रहे थे, अर्थात् चूंकि हम सामाजिक उत्पादन का एक ऐसा म स्वीकार करके चल रहे थे, जिसका विशुद्ध स्वयंस्फूर्त ढंग से विकास हुमा था, इसलिये हमने इस प्रश्न की मोर भी कोई ध्यान नहीं दिया था कि इस समय उत्पादन के जितने साधन और जितनी मम-शक्ति मौजूद है, क्या उनका प्रत्यक्ष रूप में और सुनियोजित ढंग से उपयोग करते हुए कोई प्रषिक विवेकसंगत व्यवस्था की जा सकती है। प्रामाणिक प्रशास्त्र को सामाजिक पूंजी को एक निश्चित कार्य-क्षमता की एक निश्चित मात्रा समझने का सदा बड़ा शौक रहा है। परन्तु इस पूर्वप्रह की उस घोर कूपमक, १६ वीं शताब्दी की साधारण पूंजीवादी बुद्धि के उस नीरस, पण्डिताऊ, चमड़े की खबान वाले भविष्याता मेरेमी बेन्चन ने सबसे पहले दि के रूप में स्थापना की थी। बेन्चम का दार्शनिकों में वही स्थान है जो कवियों में मार्टिन दुपर का है। दोनों का निर्माण केवल इंगलैग में ही सम्भव था। बेधन की कदि के प्रकाश में उत्पावन की क्रिया की साधारणतम घटनाएं,-मसलन उसका यकायक फैल जाना और यकायक उदाहरण के लिये देखिये Jeremy Bentham की रचना "Theorie des Peines et des Recompenses", d'Et. Dumont द्वारा फ्रांसीसी भाषा में अनुवादित , तीसरा संस्करण, Paris, 1826, ग्रंथ २, पुस्तक ४, अध्याय २। 'बेन्यम एक विशुद्ध अंग्रेजी चीज हैं। किसी काल में और किसी देश में ऐसी तुच्छ और साधारण बातें इतने घोर प्रात्म-संतोष और गर्व के साथ पेश नहीं की गयी थीं। यहां तक कि जर्मन दार्शनिक क्रिश्चियन वोल्फ़ भी इसके अपवाद नहीं हैं। उपयोगिता का सिद्धान्त बेन्थम का प्राविष्कार नहीं था। हेलवेटियस तथा अन्य फ्रांसीसियों ने जो बात १८ वीं शताब्दी में इतने प्रोजपूर्ण ढंग से कही थी, उसे बेन्यम ने अपने नीरस ढंग से दुहरा भर दिया है। कुत्ते के लिये क्या चीज उपयोगी है, इसका पता लगाने के लिये कुत्ते के स्वभाव का अध्ययन करना पड़ेगा। खुद इस स्वभाव का उपयोगिता के सिद्धान्त के प्राधार पर पता नहीं लगाया जा सकता। इसी बात को मनुष्य पर लागू करते हुए जो कोई समस्त मानव-कार्यों, गतियों, सम्बंधों इत्यादि की पालोचना करना चाहता है, उसे पहले सामान्य मानव-स्वभाव का अध्ययन करना चाहिये और फिर यह देखना चाहिये कि प्रत्येक ऐतिहासिक युग में मानव-स्वभाव में क्या परिवर्तन हो जाते हैं। लेकिन बेन्थम इस सारे किस्से को एकबारगी निपटा देते है। प्रत्यन्त शुष्क भोलेपन के साथ वह माधुनिक दूकानदार को, खास कर अंग्रेज दूकानदार को, सामान्य मानव मान लेते हैं। इस विचित्र ढंग के सामान्य मानव और उसके संसार के लिये जो कुछ उपयोगी है , वही निरपेक्ष रूप से सब के लिये उपयोगी है। और फिर बेन्थम भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों को इस मापदण्ड से माप डालते हैं। उदाहरण के लिये, ईसाई धर्म "उपयोगी" है, क्योंकि वह धर्म के नाम पर ठीक उन्हीं बुराइयों पर रोक लगा देता है, जिनपर ताजीरात फौजदारी ने कानून के नाम पर रोक लगा रखी है। इसके विपरीत, कला की मालोचना "हानिकारक" है, क्योंकि वह भद्र जनों को मार्टिन टुपर के काव्य का पानन्द लेने से रोकती है और उसमें वि डालती है, इत्यादि। और इस तरह की बकवास लिब-लिखकर इस साहसी व्यक्ति ने, जिसका मूल मंत्र यह है कि "nulla dies sine linea" ("बिना कुछ पंक्तियां लिबे कोई दिन नहीं जाना चाहिये"), किताबों के पहाड़ बड़े कर दिये है। यदि मुझमें अपने मित्र हाइनरिक हाईने जैसी हिम्मत होती, तो मैं कहता कि मि० जेरेमी पूंजीवादी मूबंता के महान प्रतिभाशाली उदाहरण है। -
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