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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६८८

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अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण ६८५ . सिकुछ जाना और यहां तक कि पूरा संचय भी,-सर्वथा कल्पनातीत बातें बन जाती हैं। खुब बेन्चम ने और माल्यूस, बेम्स मिल, मैक्कुलक मादि ने भी इस मदि का वकीलों की बलील के रूप में और खास तौर पर यह साबित करने के लिये प्रयोग किया था कि पूंजी का एक भाग, पर्वात अस्थिर भाग, या वह भाग, पो भम-शक्ति में परिणत कर दिया जाता है, एक स्थिर मात्रा होता है। इन लोगों ने यह किस्सा गढ़ रखा था कि अस्थिर पूंजी की सामग्री, अर्थात् अस्थिर पूंजी मजदूर के लिये बीवन-निर्वाह के साधनों की जिस राशि का प्रतिनिधित्व करती है, वह, या तथाकषित भम-कोष, सामाजिक धन का एक बिल्कुल अलग भाग होती है, जिसके परिमाण को प्राकृतिक नियमों ने निर्धारित कर रखा है और जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। सामाजिक बन के जिस भाग को स्थिर पूंजी की भूमिका अदा करनी है, या इसी बात को यदि भौतिक रूप में व्यक्त किया जाये, तो जिस भाग को उत्पादन के साधनों की भूमिका अदा करनी है, उसे गतिमान बनाने के लिये जीवित श्रम की एक निश्चित राशि की पावश्यकता होती है। यह राशि कितनी बड़ी होगी, यह प्रायोगिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। परन्तु न तो यह ही पहले से निश्चित होता है कि श्रम-शक्ति की इस राशि को प्रवाहमान बनाने के लिये कितने मजदूरों की प्रावश्यकता होगी (यह संख्या हर अलग-अलग अम-शक्ति के शोषण की मात्रा के साथ बदलती रहती है और न ही इस अम-शक्ति का वाम पहले से निश्चित होता है। केवल उसके नाम की अल्पतम सीमा पहले से निश्चित होती है, और उसमें भी बहुत परिवर्तन होता रहता है। इस कड़ि की तह में बो तव्य निहित है, वे इस प्रकार हैं: एक मोर तो सामाजिक धन का गैर-मजदूरों के भोग के साधनों और उत्पादन के साधनों में जो विभाजन होता है, मजदूर को उसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होता। दूसरी भोर, केवल बहुत अनुकूल और अपवाद-स्वरूप परिस्थितियों में ही मजदूर घनी की "माय" में कमी करके इस तथाकषित श्रम-कोष में वृद्धि कर सकता है। . . . 1"अर्थशास्त्री बहुधा यह समझते हैं कि पूंजी की एक खास मात्रा और मजदूरों की एक खास संख्या सदा एक सी शक्ति के उत्पादक यंत्र होती है, या वे सदा एक खास ढंग की एक सी तीव्रता के साथ काम करती है...जो यह मानते हैं ...कि वस्तुएं उत्पादन के एकमात्र तत्त्व है ... वे यह सिद्ध करते हैं कि उत्पादन को कभी बढ़ाया नहीं जा सकता, क्योंकि उसको बढ़ाने की यह एक अनिवार्य शर्त होती है कि खाद्य-पदार्थ, कच्चा माल और मौजार पहले से बढ़ा दिये गये हों, इसका वस्तुतः यह अर्थ होता है कि जब तक उत्पादन में पहले से वृद्धि नहीं हो गयी हो, तब तक उत्पादन में वृद्धि नहीं की जा सकती या, दूसरे शब्दों में, वृद्धि करना असम्भव है।" (S. Bailey, "Money and its Vicissitudes" [एस० बेली, 'मुद्रा और उसके उतार- चढ़ाव'], पृ० ५८ पौर ७०।) बेली ने मुख्यतया परिचलन की क्रिया के दृष्टिकोण से बेन्थम की रूढ़ि की पालोचना की है। 'जान स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक “Principles of Political Economy" ('अर्थशास्त्र के सिद्धान्त') में कहा है : "श्रम के जो प्रकार सचमुच मादमी को थका देने वाले और सचमुच अप्रिय होते हैं, उनके लिये अन्य प्रकारों की अपेक्षा अच्छी मजदूरी नहीं, बल्कि प्रायः सदा ही सबसे कम मजदूरी मिलती है ... कोई धंधा जितना मरुचिकर होता है, उसकी उजरत निश्चित रूप से उतनी ही कम होती है ... कष्ट और माय के बीच अनुलोम अनुपात नहीं होता, जैसा कि किसी भी न्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था में होगा, बल्कि माम तौर पर उनके बीच प्रतिलोम अनुपात का सम्बंध होता है।" यहां गलतफ़हमी से बचने के लिये मैं यह भी कह दूं कि यद्यपि जान स्टुअर्ट मिल जैसे व्यक्ति इस बात के दोषी है कि उनकी परम्परागत मार्षिक रूढ़ियों और उनकी माधुनिक