पूंजीवादी उत्पादन 112 . भन-कोष की पूंजीवादी सीमाओं को उसकी स्वाभाविक एवं सामाजिक सीमानों के रूप में पेश करने पर केसी मूर्खतापूर्ण पुनरुक्ति सामने पाती है, यह प्रोफेसर फोसेट के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने लिखा है: “किसी देश की चल पूंजी उसका मजदूरी का कोष होती है। इसलिये यदि हम इसका हिसाब लगाना चाहते हैं कि प्रत्येक मजदूर को कितनी पोसत नाव मजदूरी मिलेगी, तो हमें बस इतना ही करना है कि इस पूंजी की कुल रकम को भमजीवी जन-संख्या से भाग मतलब यह हमा कि विभिन्न मजदूरों को जो अलग- अलग मजदूरियां सचमुच दी जाती है, पहले हम उन सबको जोड़ लेते हैं और फिर इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह कुल रकम "श्रम-कोष" के कुल मूल्य का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे भगवान ने और प्रकृति ने निर्धारित करके हमें दे दिया है। और फिर, अन्त में, हम इस रकम को मजदूरों की संख्या से भाग देकर यह पता लगा लेते हैं कि हर मजदूर को कितनी प्रोसत मजदूरी मिलती है। बहुत ही धूर्ततापूर्ण मांसा है यह! पर इसके बाद एक ही सांस में मि० फोसेट को यह कहने में भी कोई कठिनाई नहीं हुई कि "इंगलैण्ड में हर वर्ष जो कुल धन बचता है, वह दो भागों में बांट दिया जाता है। एक भाग हमारे उद्योगों को कायम रखने के लिये पूंजी की तरह इस्तेमाल किया जाता है, और दूसरे भाग का विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है. इस देश में हर साल जो धन बचता है, उसका केवल एक अंश ही हमारे अपने उद्योगों में लगाया जाता है, और सम्भवतः यह अंश बड़ा नहीं होता। इस प्रकार, हर वर्ष अंग्रेज मजदूर से छल करके जो प्रतिवर्ष बढ़ती हुई अतिरिक्त पैदावार ले ली जाती है, क्योंकि उसके एवज में उसे कोई सम मूल्य नहीं मिलता,-वह इंगलड में नहीं, बल्कि विदेशों में पूंजी की तरह इस्तेमाल की जाती है। परन्तु इस तरह को अतिरिक्त पूंजी विदेशों को भेज दी जाती है, उसके साथ-साथ भगवान तथा बेन्चम द्वारा प्राविष्कृत 'भम-कोष" का एक भाग भी विदेश चला जाता है। "3 . . प्रवृत्तियों के बीच एक विरोध पाया जाता है, तथापि उनको पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था की वकालत करने वाले अप्रमाणिक अर्थशास्त्रियों के रेवड़ में शामिल कर देना बहुत गलत होगा। 1H. Fawcett, Professor of Political Economy at Cambridge, "The Econo- mic Position of the British Labourer" (एच० फोसेट , कैम्बिज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर, "ब्रिटिश मजदूर की मार्थिक स्थिति'), London, 1865, पृ० १२० । 'मैं यहां पाठक को यह याद दिला दूं कि "मस्थिर पूंजी" और "स्थिर पूंजी" की परिकल्पनामों का सबसे पहले मैंने प्रयोग किया था। इन परिकल्पनामों के बीच जो मौलिक अन्तर है, उसे अर्थशास्त्र ने ऐडम स्मिथ के समय से ही उस प्रौपचारिक अन्तर के साथ गड्डमड्ड कर रखा है, जो प्रचल पूंजी और चल पूंजी के बीच पाया जाता है और जो परिचलन की क्रिया में उत्पन्न होता है। इस विषय की और विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिये देखिये दूसरी पुस्तक का भाग २ H. Fawcett, उप० पु०, पृ० १२२, १२३ ।
- कहा जा सकता है कि इंगलैण्ड से हर वर्ष न केवल पूंजी का, बल्कि परावासियों के
रूप में मजदूरों का भी विदेशों को निर्यात होता है। किन्तु मूल पाठ में परावासियों की निजी सम्पत्ति का कोई प्रश्न नहीं है; उनमें से अधिकतर मजदूर नहीं होते। उनका अधिकांश तो काश्तकारों के बेटों का होता है। हर वर्ष विदेश जाने वाले लोगों की संख्या का देश की जन-संख्या की वार्षिक वृद्धि के साथ जो अनुपात होता है, उसकी तुलना में हर वर्ष जो अतिरिक्त पूंजी व्याज पर उठायी जाने के लिये विदेशों को भेज दी जाती है, उसका वार्षिक संचय के साप कहीं अधिक ऊंचा अनुपात होता है।