पचीसवां अध्याय पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम अनुभाग १- पूंजी की संरचना के ज्यों की त्यों रहते हुए संचय के साथ-साथ श्रम-शक्ति की मांग का बढ़ जाना - इस अध्याय में हम इस विषय पर विचार करते हैं कि पूंजी की वृद्धि का श्रमजीवी वर्ग की अवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस अन्वेषण का सबसे महत्वपूर्ण तत्व पूंजी की संरचना और उसमें संचय की क्रिया के दौरान में होने वाले परिवर्तन हैं। पूंजी की संरचना के दो पर्व लगाये जा सकते हैं। यदि मूल्य के पक्ष को लिया जाये, तो पूंजी की संरचना इस बात से निर्धारित होती है कि वह स्थिर पूंजी-प्रथवा उत्पादन के साधनों के मूल्य -और अस्थिर पूंजी-अपवा श्रम-शक्ति के मूल्य या मखदूरी की कुल राम- के बीच किस अनुपात में बंटी हुई है। यदि पूंजी की सामग्री के पक्ष को लिया जाये और उसपर इस दृष्टि से विचार किया जाये कि उत्पादन की क्रिया में उसकी क्या भूमिका है, तो सारी पूंजी उत्पादन के साधनों और जीवित श्रम-शक्ति में बंटी रहती है। इस दृष्टि से पूंजी की संरचना इस बात से निर्धारित होती है कि एक तरफ तो उत्पादन के जो तमाम साधन इस्तेमाल किये जा रहे हैं, उनकी कुल राशि और दूसरी तरफ़ इन साधनों का इस्तेमाल करने के लिये जितना भम पावश्यक होता है, उसकी राशि के बीच क्या सम्बंध है। पहली प्रकार को संरचना को मैंने पूंजी की मूल्य-संरचना और दूसरी प्रकार की संस्चना को पूंजी की प्राविधिक संरचना का नाम दिया है। दोनों के बीच एक कड़ा सह-सम्बंध होता है। इस सह-सम्बंध को व्यक्त करने के लिये मैं पूंजी की मूल्य-संरचना को, जिस हब तक कि यह पूंजी की प्राविधिक संरचना से निर्धारित होती है और उसके परिवर्तन को प्रतिबिंबित करती है, पूंजी की सांघटनिक संरचना कहता हूं। जब कभी में बिना किसी और विशेषण के केवल पूंजी की संरचना का शिक करता हूं, तब मेरा मतलब सवा सापटनिक संरचना से होता है। उत्पादन की किसी खास शाला में बो बहुत सी अलग-अलग पूंजियां लगायी जाती है, उनकी न्यूनाधिक म में एक दूसरे से भिन्न प्रकार की संरचना होती है। उनकी अलग-अलग प्रकार की संरचनामों का पोसत निकालने पर हमें पता चलता है कि उत्पादन की इस शाला में जो कुल पूंजी लगी हुई है, उसकी संरचना क्या है। अन्तिम बात यह है कि उत्पादन की
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