पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७०७

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७०४ पूंजीवादी उत्पादन प्रभावों में तेजी लाकर और उनकी तीव्रता को बढ़ाकर केलीयकरण साथ ही पूंची की प्राविधिक संरचना में होने वाले उन क्रान्तिकारी परिवर्तनों में भी तेजी ला देता है और उनका विस्तार कर देता है, जिनके फलस्वरूप पूंजी के अस्थिर अंश. में कमी पा जाती है और स्थिर अंश में वृद्धि हो जाती है और इस तरह मन की सापेन मांग घट जाती है। केन्द्रीयकरण पूंजी की जिन राशियों का रातोरात एकीकरण कर देता है, वे पूंजी की अन्य राशियों की ही तरह अपना पुनरुत्पावन तथा विस्तार करती हैं। अन्तर केवल यह होता है कि ये राशियां अपना पुनरुत्पादन तथा विस्तार स्यावा तेजी से करती है और इस तरह सामाजिक संचय का एक नया एवं शक्तिशाली लीवर बन जाती हैं। इसलिये, पावकल अगर कभी सामाजिक संचय की प्रगति की चर्चा की जाती है, तो अव्यक्त कम से यह भी मान लिया जाता है कि केन्द्रीयकरण का प्रभाव भी उसमें शामिल है। सामान्य संचय के दौरान में जिन अतिरिक्त पूणियों का निर्माण होता है (देखिये चौबीसवी अन्याय, अनुभाग १), मुख्यतया नये माविकारों और नयी खोजों से और पाम तौर पर सभी प्रकार के प्रोचोगिक सुधारों से लाभ उठाने के साधनों का काम करती है। किन्तु पुरानी पूंजी के लिये भी पाजिर वह घड़ी माही जाती है, जब उसे सिर से पैर तक अपना नवीकरण करना पड़ता है, जब उसे अपनी पुरानी के त उतारकर फेंक देनी पड़ती है और जब उसका भी अपने परिष्कृत प्राविधिक स में नवजन्म होता है, जिस रूप में पहले से कम मात्राका मम पहले से अधिक परिमाण की मशीनों और कच्चे माल को गतिमान बना देने के लिये पर्याप्त होता है। इसके फलस्वरूप मावश्यक रूप से भम की मांग में बो निरपेक्ष कमी पा जाती है, वह स्पष्टतया उतनी ही बड़ी होगी, जितनी कि कायाकल्प की इस क्रिया में से गुजरने वाली ये पूंजिया केन्द्रीयकरण की पिया के द्वारा पहले ही से बड़ी-बड़ी राशियों में संचित हो गयी होंगी। इसलिये, एक तरफ तो संचय के दौरान में निर्मित अतिरिक्त पूंजी अपने परिमाण की तुलना में अधिकाधिक कम मजदूरों को अपनी मोर प्राकर्षित करती है। दूसरी तरफ, पुरानी पूंजी, जिसका एक निश्चित अवधि के बार बार-बार उसकी संरचना में परिवर्तन करके पुनरुत्पादन किया जाता है, अधिकाधिक संख्या में अपने पुराने मजदूरों को अपने पास से हटाती जाती है। . अनुभाग ३-सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या या औद्योगिक रिजर्व सेना का उत्तरोत्तर बढ़ता हुमा उत्पादन शुरू में ऐसा लगता था कि पूंजी के संचय के दौरान में उसका केवल परिमाणात्मक विस्तार ही होता है। परन्तु, जैसा कि हम अपर देश के हैं, पूंजी का संचय उसकी संरचना में उत्तरोत्तर होने वाले गुणात्मक परिवर्तनों के द्वारा सम्पन्न होता है। वह इस तरह सम्पन्न होता है कि पूंची के स्थिर संघटक में लगातार वृद्धि होती जाती है और उसका अस्थिर संघटक लगातार घटता तीसरे बर्मन संस्करण का नोट: मास की प्रतिलिपि में यहां पर यह पार्व-टिप्पणी मिलती है: "बाद में विस्तार के साथ विवेचन करने के लिये यहां पह बात ध्यान में