पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७०८

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पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७०५ . . , उत्पादन की विशिष्टतया पूंजीवादी प्रणाली, बम की उत्पादक शक्ति का तदनुरूप विकास और इसके फलस्वरूप पूंजी की सांघटनिक संरचना में पैदा हो जाने वाला परिवर्तन-ये सारी बातें केवल उसी गति के साप सामने नहीं पातीं, जिस गति के साथ संचय की प्रगति होती है, या सामाजिक पन में वृद्धि होती है। उनका कहीं अधिक तीव्र गति से विकास होता है, क्योंकि साधारण संचय या समाज की कुल पूंजी में होने वाली निरपेक्ष वृद्धि के साथ-साथ यह कुल पूंजी जिन अलग-अलग पूंजियों का जोड़ है, उनका केनीयकरण भी होता जाता है, और क्योंकि अतिरिक्त पूंजी की प्रौद्योगिक संरचना में जो परिवर्तन प्राता है, उसके साथ-साथ मूल पूंजी की प्रौद्योगिक संरचना में भी उसी प्रकार का परिवर्तन पा जाता है। इसलिये, संचय की प्रगति के साथ-साथ अस्थिर पूंजी के साथ स्थिर पूंजी का अनुपात बदल जाता है। शुरू में यदि, मान लीजिये, ११ का अनुपात था, तो उत्तरोत्तर २ः१, ३ः१, ४:१, ५ः१, ७:१ इत्यादि का अनुपात होता जाता है, जिसका नतीजा यह होता है कि जैसे-जैसे पूंजी वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे १ १ उसके कुल मूल्य के भाग के बजाय केवल ३ इत्यादि भाग २ ३ ही अम-शक्ति में स्पान्तरित किया जाता है और दूसरी मोर ... इत्यादि भाग उत्पावन के साधनों में बदल दिया जाता है। चूंकि श्रम की मांग कुल पूंजी की मात्रा से नहीं, बल्कि केवल उसके अस्थिर संघटक की मात्रा से निर्धारित होती है, इसलिये कुल पूंजी के बढ़ने के साथ-साथ यह मांग उसके अनुपात में नहीं बढ़ती, जैसा कि हमने पहले मान रखा था, बल्कि वह उत्तरोत्तर घटती जाती है। कुल पूंजी के परिमाण की तुलना कम हो जाती है, और जैसे-जैसे कुल पूंजी का परिमाण बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे यह मांग अधिकाधिक तेज रफ्तार के साप घटती जाती है। कुल पूंजी में वृद्धि होने पर उसका अस्थिर संघटक या उसमें समाविष्ट मम भी बढ़ता है, पर लगातार घटते हुए अनुपात में बढ़ता है। अन्तकालीन अवधियां छोटी हो जाती है, जिनमें संचय केवल एक निश्चित प्राविधिक प्रापार पर उत्पावन का साधारण विस्तार करता है। मजदूरों की अतिरिक्त संख्या को काम में लगाने के लिये, या यहां तक कि पुरानी पूंजी के अनवरत रूपान्तरण के कारण पहले से काम में लगे हुए मजदूरों को काम पर लगाये रखने के लिये भी कुल पूंजी के पहले से तेज गति के संचय की मावश्यकता होती है और बरी होता है कि संचय की गति उत्तरोत्तर प्रषिक तेज होती जाये, हम केवल इतना ही नहीं पाते हैं। इस बढ़ते हुए संचय और केन्द्रीयकरण के फलस्वरूप पूंजी की संरचना में नये परिवर्तन हो जाते हैं और उसके स्थिर संघटक की तुलना में उसका अस्थिर संघटक और भी तेज गति से घटने लगता है। कुल पूंजी की पहले से तेज वृद्धि के साथ-साथ उसके अस्थिर संघटक जो यह पहले से तेज तुलनात्मक कमी पाती है और जो कमी कुल पूंजी की वृद्धि की गति से अधिक तीव्र गति से बढ़ती है, वह दूसरे ध्रुव पर इसका उल्टा म धारण कर लेती है, और लगता है, जैसे श्रमजीवी जन-संख्या में निरपेक्ष वृद्धि होती जा रही यह मांग . व्यवसाय रखो: यदि पूंजी का केवल परिमाणात्मक विस्तार होता है, उसी शाखा में बड़ी पूंजी लगाने पर बड़ा मुनाफ़ा होगा और छोटी पूंजी लगाने पर छोटा मुनाफा होगा। यदि परिमाणात्मक विस्तार से गुणात्मक परिवर्तन भी हो जाता है तो उसके साथ-साथ ज्यादा बड़ी पूंजी के मुनाफे की दर भी बढ़ जायेगी।" -२० ए. 45-45