पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७०९

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पूंजीवादी उत्पादन है, और वह भी ऐसी तीव्र गति से कि अस्थिर पूंजी या रोजगार देने के साधनों की वृद्धि की गति सवा उस से पीछे रहती है। परन्तु वास्तव में तो पूंजीवादी संचयपुर ही लगातार मजदूरों की एक अपेक्षाकृत अनावश्यक संख्या का उत्पादन करता रहता है, अर्थात् पूंची के पात्म-विस्तार की मौसत पावश्यकताओं के लिये वो चन-संख्या पर्याप्त होती है, पूंजीवादी संचय उससे बड़ी जन-संस्था का, जो इस कारण अतिरिक्त जन-संख्या होती है, उत्पादन करता रहता है, और यह उत्पादन वह स्वयं अपनी ऊर्जा और विस्तार के प्रत्यक्ष अनुपात में करता है। यदि सामाजिक पूंची पर उसकी समता में विचार किया जाये, तो हम देखते हैं कि उसके संचय की किया कभी तो न्यूनाधिक प में समूची पूंची पर प्रसर गलने वाले नियतकालिक परिवर्तन पैदा करती है और कभी एक ही समय में उत्पादन के अलग-अलग क्षेत्रों में इस क्रिया की अलग-अलग प्रवस्थाएं दिखाई देने लगती हैं। कुछ क्षेत्रों में पूंजी के निरपेक्ष परिमाण में कोई वृद्धि नहीं होती, पर साधारण केन्द्रीयकरण के फलस्वरूप उसकी संरचना में परिवर्तन हो जाता है। कुछ अन्य क्षेत्रों में पूंजी की निरपेक्ष वृद्धि के साथ-साप अस्थिर संघटक में, या यह पूंजी जिस श्रम-शक्ति का अवशोषण करती है, उसमें निरपेक्षा कमी मा जाती है; अन्य क्षेत्रों में पूंजी कुछ समय तक तो अपने पुराने प्राविधिक प्राधार पर बढ़ती रहती है, और अपनी वृद्धि के अनुपात में अतिरिक्त प्रम-शक्ति को अपनी मोर माकर्षित करती है, पर उसके बाद उसमें सांघटनिक परिवर्तन हो जाता है और उसके अस्थिर संघटक में कमी पा जाती है। सभी क्षेत्रों में पूंजी के अस्थिर भाग में और इसलिये वह जिन मजदूरों से काम लेती है, उनकी संख्या में को भी वृद्धि होती है, वह सदा सस्त उतार-चढ़ाव और अतिरिक्त जन-संख्या के लगिक उत्पादन के साथ पूरी होती है। यह चीज चाहे पहले से काम में लगे हुए मजदूरों को जवाब मिल जाने के अधिक स्पष्ट रूम में सामने पाये और चाहे वह इस अपेक्षाकृत कम स्पष्ट, किन्तु उतने ही वास्तविक रूप में सामने पाये कि प्रचलित तरीकों के द्वारा अतिरिक्त जन-संख्या को हबम करना पहले से बहुत कठिन हो पाता है। पहले से कार्यरत सामाविक पूंजी के परिमाण तथा उसकी वृद्धि . . इंगलैण्ड और वेल्स की जन-गणना के प्रांकड़ों से पता चलता है :खेती में लगे सभी व्यक्तियों की (जिनमें जमींदार, काश्तकार, माली, गड़रिये मादि शामिल थे) संख्या १८५१ में २०,११,४७ पी और १९६१ में १९,२४,११० हो गयी थी, यानी उसमें ८७,३३७ की कमी मा गयी थी। बटे हुए ऊन का सामान तैयार करने के धंधे में लगे हुए तमाम-व्यक्तियों की संख्या १८५१ में १,०२,७१४ थी और १८६१ में ७९,२४२ रह गयी थी। रेशम की बुनाई में १८५१ में १,११,६४० व्यक्ति काम करते थे, १८६१ में उनकी संख्या १,०१,६७८ रह गयी थी। दरेस की छपाई के धंधे में काम करने वाले व्यक्तियों की संख्या १८५१ में १२,०१८ थी, और १८६१ में १२,५५६ हो गयी थी,- इस उद्योग का जितना जबर्दस्त विकास हुमा पा, उसको देखते हुए मजदूरों की संख्या की यह वृद्धि बहुत ही कम पी, और उसका प्रचं यह था कि मानुपातिक दृष्टि से इस धंधे में काम करने वाले मजदूरों की संख्या में बहुत बड़ी कमी पा गयी थी। टोप बनाने के धंधे में काम करने वालों की संख्या १८५१ में १५,९५७ पी, १९६१ में वह १३,८१४ रह गयी थी। सूबी पास के टोप और बनानी. टोपियां बनाने के व्यवसाय में यह संख्या १८५१ में २०,३९३ थी और १८६१ में १८,१७६० जी की शराब बनाने के धंधे में यह संख्या १८५१ में १०,५६६ पौर १८६१ में १०,६७७ थी। मोमबत्तियां . ,