पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७१४ पूंजीवादी उत्पादन . . . में इस बात से निर्धारित होती है कि सक्रिय तवा रिवर्व सेना के बीच मजदुरवर्ग का सक्रिय विभाजन किस अनुपात में हुमा है, अतिरिक्त जनसंख्या की सापेल मात्रा में वृद्धि हो गयी है या कमी मा गयी है और किस हद तक उसका उद्योग में अवशोषण हो जाता है या उसे किस हर तक फिर उद्योग से निकाल दिया जाता है। वर्षीय पकों और नियतकालिक अवस्वानों वाले इस माधुनिक उद्योग के लिये, जिसके ये बातवा प्रवल्याएं संचय का विकास होने पर अधिकाधिक शीघ्रता के साथ एक दूसरे का अनुसरण करने वाले अनियमित प्रबोलनों के कारण और भी जटिल बन जाती है, वह सचमुच एक बड़ा सुन्दर नियम होगा, बो यह नहीं कहता कि मम की मांग और पूर्ति का नियमन पूंजी के बारी-बारी से होने वाले विस्तार और संकुचन से होता है, और यह कि अब पूंजी का विस्तार होता है, तब मन की मन्दी में तुलनात्मक दृष्टि से कम मम विलाई देने लगता है, और जब पूंजी का संकुचन होता है, तब मन्डी फिर मम से पटी हुई मालूम होने लगती है, बल्कि वो इसके बजाय यह दावा करता है कि बुर पूंजी की गति जनसंख्या के निरपेक्ष परिवर्तनों पर निर्भर करती है। परन्तु अर्थशास्त्री इसी कदि से चिपके हुए हैं। उनके मतानुसार, मजबूरी पूंजी के संचय के फलस्वरूप बढ़ती है। मजदूरी बढ़ जाती है, तो उससे काम करने वाली मावादी को पहले से ज्यादा तेजी के साथ अपनी संख्या को बढ़ाने का प्रोत्साहन मिलता है, और यह चीज उस बात तक जारी रहती है, जब तक कि बम की मन्डी फिर नहीं पट जाती और इसलिये जब तक कि श्रम की पूर्ति की तुलना में पूंजी फिर अपर्याप्त नहीं हो जाती। तब मजदूरी गिर जाती है और तस्वीर का दूसरा बन हमारे सामने पाता है। मजदूरी के गिरते जाने के फलस्वरूप काम करने वाली भावादी पोड़ी-पोड़ी करके नष्ट होती जाती है, जिससे मजदूरों की तुलना में पूंजी की मात्रा फिर प्यार हो जाती है, या, जैसा कि कुछ दूसरे इसे व्यक्त करते हैं, मजदूरी के गिरते जाने और मजदूर के शोषण में तदनुरूप वृद्धि होते जाने के फलस्वरूप संचय में फिर तेजी पा जाती है और उपर इसके साथ-साथ कम मखदूरी मजदूर वर्ग की वृद्धि पर प्रतिबंध लगाये रहती है। इसके बाद फिर वह समय पाता है, जब मन की पूर्ति उसकी मांग से कम हो जाती है, मजबूरी बढ़ने लगती है, और वह पूरा कम फिर शुरू हो जाता है। विकसित पूंजीवादी उत्पादन की गति की यह कितनी सुन्दर विषि है। इसके पहले कि मजबूरी के बढ़ जाने के फलस्वल्म सचमुच काम करने के योग्य प्राबादी में कोई ठोस वृद्धि हो, वह समय कई बार पा-पाकर गुबर पायेगा, जिसमें यह प्रौद्योगिक संग्राम चलाया जा चुका होगा और लड़ाई लड़कर जीती जा चुकी होगी। १०४९ र १८५६ के बीच इंगलैग के तिहार डिस्ट्रिक्टों में मजबूरी में थोड़ी सी वृद्धि हुई, जो प्यावहारिक दृष्टि से महत्वहीन पी, हालांकि यह सही है कि उसके साथ-साथ अनाव के दाम गिर गये थे। मिसाल के लिये, विल्टशापर में साप्ताहिक मजदूरी ७ शिलिंग से ८ शिलिंग हो गयी थी, मेरसेटशायर में ७ शिलिंग या शिलिंग से शिलिंग हो गयी थी, और इसी तरह अन्य स्थानों में भी। यह इस बात का परिणाम पा कि पुट की पावत्यक- तामों और रेलों, पटरियों, सानों पारि के विस्तार के कारण तिहरों की अतिरिक्त वन- संस्था असाधारण परिमाण में गांवों को छोड़कर चली गयी थी। मजदूरी जितनी नीची होती है, इस प्रकार की महत्वहीन बुद्धि उसके अनुपात में उतनी ही अंची प्रतीत होता है। उदाहरण के लिये, यदि साप्ताहिक मजदूरी २० मिलिंग हो और यह बहकर २२ शिलिंग हो बाये, तो उसमें १० प्रतिशत की वृद्धि होगी। परन्तु परि यह केवल . शिलिंग हो और . . .