पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७१९ . इस हिस्से की संख्या में इस प्रकार की निरपेन वृद्धि होनी चाहिये कि उसके अलग-अलग सदस्यों के बहुत तेजी से मरते-सपते रहने के बावजूद इस हिस्से की कुल संख्या बराबर बढ़ती जाये। इसलिये, बरी है कि बहुत जल्दी जल्दी मजदूरों की एक पीढ़ी का स्थान दूसरी पीढ़ी लेती जाये (प्राबादी के अन्य वर्गों पर यह नियम लागू नहीं होता)। यह सामाजिक मावश्यकता इस तरह पूरी होती है कि मजदूरों के बच्चों का बहुत जल्दी विवाह हो जाता है। माधुनिक उद्योग में मजदूरों को जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, उनका यह लादिमी मतीचा होता है। दूसरे, यह सामाजिक प्रावश्यकता इस तरह पूरी होती है कि बच्चों के शोषण के परिणामस्वरूप मजदूरों को बच्चे पैदा करने में अपना फायदा दिखाई देने लगता है। जैसे ही पूंजीवादी उत्पादन खेती पर अधिकार कर लेता है, वैसे ही और जिस हद तक वह ऐसा करता है, उस हर तक लेतिहर श्रमजीवी जन-संख्या की मांग निरपेक्ष रूप से कम हो जाती है और, दूसरी पोर, सेती में लगी हुई पूंजी का तेजी से संचय होने लगता है, परन्तु अन्य उद्योगों की तरह यहां पर मजदूरों के प्रतिकर्षण की पाकर्षण की वृद्धि के द्वारा भति-पूर्ति नहीं होती। इसलिये खेतिहर मावावी का एक भाग हमेशा शहरी सर्वहारा में अथवा उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों में सम्मिलित हो जाने को विवश होता है और इस स्पान्तरण के लिये अनुकूल परिस्थितियां खोजा करता है। (यहाँ पर उद्योगों से हमारा मतलब खेती के अलावा तमाम उद्योगों से है। इस प्रकार, सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या का यह मोत लगातार बहता रहता है। परन्तु शहरों की मोर लगातार पो धारा बहती रहती है, उसके लिये जरूरी है कि खुद देहात में हमेशा अव्यक्त प्रतिरिक्त जन-संख्या बनी रहे, जिसका विस्तार केवल उसी समय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जब इस धारा के द्वार प्रसाधारण चौड़ाई तक खोल दिये जाते हैं। इसीलिये खेतिहर मजदूर को सबा कम से कम मजदूरी मिलती है, और उसका एक पैर सदा कंगाली के बलबल में फंसा रहता है। तीसरे प्रकार की सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या, निष्प्रवाह अतिरिक्त जन-संस्था, सक्रिय अमिक सेना का ही एक भाग होती है, परन्तु उसको बहुत ही अनियमित रूप से काम मिलता है। प्रतः उसके रूप में पूंजी के लिये सवा उपलब्ध भम-शक्ति का एक प्रमय भन्डार तैयार हो जाता है। इन मनिकों का जीवन स्तर मजबूस्वर्ग के प्रोसत सामान्य बीवन-स्तर के नीचे गिर जाता है, और इस कारण ममिकों का यह हिस्सा तुरन्त ही पूंजीवादी शोषण की विशेष शालाओं का व्यापक पापार बन जाता है। इस हिस्से की विशेष बात यह होती है कि उसे ज्यादा से . - 1१८६१ की जन-गणना में इंगलैण्ड और वेल्स के जिन ७८१ शहरों का जिक्र है, उनमें "१,०६,६०,९६८ व्यक्ति रहते थे, जब कि गांवों में और देहाती बस्तियों के लोगों की संख्या ९१,०५,२२६ थी। १८५१ की जन-गणना में ५८० शहरों का शहर के रूप में जिक्र किया गया था, और उनकी तथा इर्द-गिर्द के देहात की पावादी लगभग बराबर थी। परन्तु उसके बाद के दस वर्षों में जहां गांवों और देहात की भावादी में ५ लाख का इजाफा हुमा, वहाँ ५८० शहरों की पावादी में पन्द्रह लाख (१५,५४,०६७ ) की वृद्धि हुई। देहाती बस्तियों की भावादी ६.५ प्रतिशत बढ़ गयी, शहरों की मावादी १७.३ प्रतिशत बढ़ गयी। वृद्धि की दर के इस अन्तर का कारण यह है कि लोग देहात छोड़कर शहरों में चले माये थे।पावादी में कुल जितनी वृद्धि हुई है, उसका तीन चौथाई भाग शहरों की भावादी में वृद्धि का है।" ("Census, &c." ['जन-गणना, इत्यादि'], पृ. ११ और १२।)
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७२२
दिखावट